: वरिष्ठ कांग्रेस नेता और नेहरू-गांधी परिवार के लंबे समय वपफादार रहे अर्जुन सिंह का मानना है कि पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव को राजीव गांधी की श्रीपेरूम्बदूर में हुई हत्या की योजना के बारे में पहले से जानकारियां थीं. अर्जुन सिंह ने यह सनसनीखेज खुलासा उन पर वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी द्वारा लिखी गई पुस्तक 'अर्जुन सिंह : एक सहयात्री इतिहास का' में किया है. अर्जुन सिंह का कहना है कि ''राजीव जी की हत्या योजनाबद्ध ढंग से की गई थी. यह हो सकता है कि हत्या की प्लानिंग में राव का कोई हाथ न हो, लेकिन उन्हें पूर्व जानकारी जरूर थी और वे इन जानकारियों को सबके सामने प्रकट नहीं होने देना चाहते थे. इसलिए कुछ चीजों को लेकर (राव के प्रति) संदेह होना स्वाभाविक है.'
कांग्रेस में रहते हुए बरसों तक शीर्ष स्तर पर सत्तासुख भोगने वाले अर्जुन सिंह इन दिनों अपनी आत्मकथा लिखने में व्यस्त हैं. उनकी आत्मकथा कितनी विस्पफोटक होगी, इसका अंदाजा करीब सालभर पहले बाजार में आई. पुस्तक 'अर्जुन सिंह : एक सहयात्री इतिहास का' में किए गए रहस्योद्घाटनों से सहज ही हो सकता है. यह अचरजपूर्ण है कि मीडिया का ध्यान इस पुस्तक में राजीव गांधी की हत्या को लेकर पी.वी. नरसिंहराव के प्रति जताए गए संदेह को लेकर क्यों नहीं गया. मीडिया इस पुस्तक में वर्णित सोनिया गांधी द्वारा अर्जुन सिंह को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार न बनाए जाने पर उनकी पत्नी सरोज सिंह के सोनिया के प्रति कठोर बयान को ही उछालकर भूल गया.पत्रकार रामशरण जोशी का अर्जुन सिंह के साथ करीब तीन दशक से भी लंबा करीबी संबंध रहा है और इस नाते काफी अंदरूनी और गोपनीय घटनाक्रमों तक वे अपनी पहुंच बना पाए.
इस समय यूनियन कार्बाइड कांड में वारेन एंडरसन को उपरी आदेश पर रिहा करने के रहस्य को दबाए बैठे अर्जुन सिंह कई आरोपों और शंकाओं के घेरे में हैं. पुस्तक में कहा गया है कि अर्जुनसिंह ने प्रधानमंत्री राव से राजीव गांधी की हत्या की वास्तविकता का पता लगाने के लिए कई बार कहा. सिंह का तर्क था कि राजीव की हत्या से किसी को तो लाभ पहुंचा ही होगा. यदि वे जीवित रहते तो किन लोगों के हितों को आघात पहुंच सकता था? कुछ लोगों ने हत्यारे को आत्मघाती 'मानव-बम' बनकर पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को उड़ाने के लिए जरूर प्रेरित किया होगा? कौन लोग हैं वो? किन लोगों ने राजीव गांधी की यात्रा का संपूर्ण विवरण उपलब्ध कराया? ऐसे ही कई सवाल थे जो कि सिंह को लगातार आंदोलित किए हुए थे. राजीव गांधी की हत्या के तुरंत बाद ही तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर को कठघरे में खड़ा किया गया था.
राज्यसभा में कांग्रेस के तत्कालीन सदस्य अहलूवालिया ने तो प्रधानमंत्री पर कुछ अविश्वसनीय आरोप भी जड़ दिए थे, जिन्हें चंद्रशेखर ने सदन में ही खारिज कर दिया था. कांग्रेस की सरकार बनने के बाद अर्जुन चाहते थे कि प्रधानमंत्री राव इस हत्याकांड की तह तक पहुंचने में निजी दिलचस्पी दिखाएं. सिंह का कहना है कि 'मैं कनविन्स्ड हो गया था कि राव साहब की इसमें शुरू से ही दिलचस्पी नहीं थी. ऐसी भी बातें सामने आने लगी थीं कि राव साहब को हत्या की प्लानिंग की कुछ जानकारियां थीं. यह हो सकता है कि हत्या की प्लानिंग में राव जी का कोई हाथ न रहा हो, लेकिन उन्हें कोई-न-कोई पूर्व जानकारी जरूर थी. वे इन जानकारियों को सबके सामने प्रकट नहीं होने देना चाहते थे. इसलिए कुछ चीजों को लेकर संदेह पैदा होना स्वाभाविक है.
यह बात भी सही है कि चंद्रशेखरजी ने राजीव जी की सुरक्षा के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए थे. वैसे मेरा मत है कि राजीव जी की हत्या योजनाबद्ध ढंग से की गई थी. इसका कभी-न-कभी खुलासा तो हो ही जाएगा. उनकी हत्या का हम सब कांग्रेस कार्यकर्ताओं पर गहरा असर पड़ा था. कांग्रेस को छोड़ने के बाद भी मैं और मेरे साथी राजीव जी की हत्या का मामला संसद के भीतर और बाहर उठाते रहे हैं.'
सोनिया गांधी के उनके पति की हत्या की जांच प्रक्रिया के संबंध में क्या विचार रहे हैं, इस संबंध में वे अपनी अनभिज्ञता व्यक्त करते हैं. अर्जुन सिंह का यह मत अवश्य रहा है कि सोनिया गांधी जांच प्रक्रिया से पूरी तरह संतुष्ट नहीं रही हैं. सिंह का कहना था कि राजीव जी की हत्या के पश्चात सोनियाजी ने स्वयं को बाहरी दुनिया से लगभग काट लिया था. उन्होंने करीब पांच-छह वर्षों तक किसी के साथ सक्रिय संवाद बनाए नहीं रखा. क्योंकि वे अपने युवा पति की हत्या से भीतर व बाहर से दहल उठी थीं. एक प्रकार से शंका और आशंकाओं की दीवार उनके और बाहरी लोगों के बीच खड़ी हो गई थी. प्रधानमंत्री राव ने भी ईमानदारी पूर्वक इस दीवार को तोड़ने की अपनी ओर से कोशिश नहीं की. अतः जांच पद्धति व प्रक्रिया पर शंकाओं का कोहरा छाया रहा.
अर्जुन सिंह की धरणा का सारतत्व यह है कि स्व. नरसिंहराव ने राजीव गांधी के असली हत्यारों का पता लगाने और पकड़ने में अपेक्षित ईमानदारी व गंभीरता का परिचय नहीं दिया. यद्यपि जैन-आयोग का गठन जरूर किया गया था. लेकिन असली अपरधी पुलिस की गिरफ्त से फरार ही रहे. सिंह मानते रहे हैं कि चेन्नई के निकट पैरुम्बदूर में जिस लड़की ने मानव-बम बनकर राजीव गांधी को उड़ाया था 'वह तो सिर्फ माध्यम भर थी'. इस संदर्भ में यह बतलाना उचित रहेगा कि सिंह ने न्यायमूर्ति जैन से काफी समीपी संबंध स्थापित कर लिए थे. दोनों के बीच मुलाकातें हुआ करती थीं और विचारों का आदान-प्रदान भी. संभव है कि न्यायमूर्ति जैन ने अर्जुन के साथ कई ऐसी संवेदनशील जानकारियों को शेयर किया हो जो प्रधानमंत्री राव की नेक नीयत को शक के दायरे में खड़ा कर सकती थीं. सिंह स्वयं कहते हैं, 'मैंने बीच में जस्टिस जैन से अच्छे संबंध बना लिए थे. वे मुझसे काफी 'कन्फाइड' किया करते थे. पहली बात तो इसकी पहचान करनी थी कि यह राजनीतिक हत्या किसको सूट करती थी? इसके पीछे किसका 'मोटिवेशन' हो सकता है?' अर्जुन के अपने तर्क हैं और परिस्थितियों पर आधरित निष्कर्ष व संदेह हैं. ये ठोस भी हो सकते हैं और आधरहीन भी.
एक रोज अर्जुन सिंह और फोतेदार सीताराम केसरी जी से मिलने भी गए. उन्हें अपनी भावनाओं से अवगत कराया, लेकिन केसरी जी चिढ़कर बोले- 'पहले इंदिरा गांधी मरी, फिर राजीव मरे तो अब सोनिया जी को...! कांग्रेस पार्टी कोई डिब्बा है जो इस तरह जुड़ती जाएगी?' 1996 में कांग्रेस हार गई. तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव को संगठन के अध्यक्ष पद को छोड़ने के लिए विवश किया गया. उनके स्थान पर सीताराम केसरी ने पार्टी की कमान संभाली. लेकिन सिंह और उनके साथी चाहते थे कि स्व. गांधी की पत्नी सोनिया गांधी को ही अध्यक्ष पद पर बैठाया जाए. केसरी इसके लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थे बल्कि वे कांग्रेस के समर्थन से चल रही एच.डी. देवगौड़ा की सरकार को हटवाकर स्वयं ही सरकार बनाना चाहते थे.
1997 में उन्होंने इसके प्रयास काफी तेज कर दिए, लेकिन उनकी यह योजना सपफल नहीं हो सकी. यद्यपि देवगौड़ा-सरकार का पतन जरूर हो गया, लेकिन उनके स्थान पर इंद्रकुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने. सत्ता की दौड़ में सीताराम केसरी को पराजय का सामना करना पड़ा. एक तरफ वे प्रधानमंत्री नहीं बन सके तो दूसरी ओर सोनिया समर्थकों ने उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटाने के लिए अपनी कोशिशें भी तेज कर दीं. एक रोज दोपहर में कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्य ए.एस., प्रणब मुखर्जी सहित अन्य लोग कांग्रेस मुख्यालय पहुंचे और अध्यक्ष के विरुद्ध हठात बगावत की घोषणा कर दी. कार्यकारिणी का बहुमत केसरी के खिलापफ था और उन्हें अध्यक्ष पद से तत्काल त्यागपत्र देना पड़ा. उनके स्थान पर सोनिया गांधी को अध्यक्ष नियुक्त किया गया. यदि ए.एस. इस मिशन में सक्रियता नहीं दिखलाते तो शायद सोनिया गांधी का अध्यक्ष बनना संभव नहीं होता.
नंबर दो पर नहीं रखे जाने से भी रहे दुखी
जब 2004 में सोनिया गांधी ने अर्जुनसिंह के स्थान पर एक गैर-राजनीतिक (डॉ.मनमोहन सिंह) व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद सौंप दिया, तब सिंह को राजनीतिक के साथ-साथ भावनात्मक आघात भी लगा था. लेकिन अनुशासित सिपाही की भांति उन्होंने सोनिया गांधी और अपनी नियति से समझौता कर लिया था. उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में मानव संसाध्न विकास मंत्री का पद भी स्वीकार कर लिया था. उन्हें यह विश्वास जरूर था कि मंत्रिमंडल में प्रधानमंत्री के पश्चात उनको प्राथमिकता पर रखा जाएगा, लेकिन सोनिया-मनमोहन सत्ता समीकरण ने सिंह के बजाए पश्चिम बंगाल के सांसद प्रणब मुखर्जी को वरीयता दी. उन्हें दूसरे स्थान पर रखा गया. अर्जुन चाहते थे कि डॉ. सिंह की अनुपस्थिति में मंत्रिमंडल की बैठकों की अध्यक्षता उनसे कराई जाए, लेकिन उन्हें इस विशेष अवसर से भी वंचित किया गया. सिंह 2004 से लेकर 2007 के मध्य तक जैसे-तैसे डॉ. सिंह व सोनिया गांधी का साथ निभाते रहे.
ऐसे क्षणों में एक उम्मीद जरूर अंकुरित रही होगी और वह होगी- राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी. अर्जुन को पूर्ण विश्वास था कि सोनिया गांधी उनकी दीर्घ-निष्ठापूर्ण भूमिका का वांछित मूल्यांकन करके उन्हें राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस का प्रत्याशी घोषित कर देंगी. उन्हें उम्मीद का एक मजबूत आधर वाम मोर्चा का समर्थन भी था. चारों वामपंथी पार्टियां (सी.पी.एम., सी.पी.आई., फारवर्ड ब्लॉक और आर.एस.पी.) अर्जुन सिंह को राष्ट्रपति बनाए जाने के पक्ष में थीं. कांग्रेस नेतृत्व को इसके साफ संकेत भी दे दिए गए थे. राष्ट्रपति चुनाव की पृष्ठभूमि में मैंने अर्जुन से उनके निवास स्थान पर तीन-चार दफे मुलाकातें भी की थीं. वे अपनी उम्मीदवारी को लेकर लगभग आश्वस्त थे. उन्होंने मुझसे कहा था- 'बाकी सब कुछ ठीक है. अब सब कुछ मैडम पर निर्भर है. मैं समझता हूं कि सब कुछ ठीक-ठाक रहेगा.' उन दिनों में हुई अंतिम मुलाकात के समय अर्जुन सिंह काफी प्रसन्न भी लगने लगे थे.
संभवतः उन्हें संकेत दिए जा रहे हों कि उम्मीदवारों के चयन के अंतिम दौर में सोनिया गांधी उनके ही नाम का प्रस्ताव करेंगी. वामपंथी लॉबी भी आश्वस्त थी. इस लॉबी की ओर से सोनिया गांधी और डॉ. सिंह को अर्जुन के संबंध में संकेत भी दिए गए थे. सिंह परिवार को भी लग रहा था कि इस दफा सोनिया गांधी इस निष्ठावान सैनिक को निराश नहीं करेंगी. अर्जुन को राष्ट्रपति बनाकर उन्हें उपकृत करेंगी. लेकिन चयन के अंतिम दौर में एक बार फिर सिंह के साथ विश्वासघात हुआ. स्वास्थ्य का बहाना बनाकर उनके नाम को रद्द कर दिया गया. उनके स्थान पर महाराष्ट्र की एक अत्यंत गौण कांग्रेसी नेता श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल का राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में चयन कर लिया गया. प्रत्याशी के चयन के समय श्रीमती पाटिल राजस्थान के राज्यपाल के पद पर थीं. अंततः श्रीमती पाटिल राष्ट्रपति बन गईं. इस प्रकार प्रधानमंत्री डॉ. सिंह को राष्ट्रपति के रूप में श्रीमती पाटिल उसी 'व्यक्तित्व वजन' की नेता मिल गईं जिसके वे स्वयं थे. संक्षेप में, सोनिया गांधी के भावी सत्ता समीकरण की दृष्टि से इससे क्या बेहतर जुगलबंदी (डॉ. सिंह और डॉ. पाटिल) हो सकती थी?
इस 'मैडम' का क्या बिगड़ जाता...?
सोनिया गांधी के इस कदम से अर्जुन सिंह परिवार को काफी सदमा पहुंचा. अर्जुनसिंह को भी भावनात्मक आघात लगा. सिंह में बला का आत्मसंयम है. उनकी मुख-मुद्राएं आसानी से उनके भीतर भूचालों का पता नहीं लगने देती हैं. एक इस्पाती चादर उनके भीतरी संघर्षों पर पड़ी रहती है. जब उन्हें इस मोर्चे पर शिकस्त मिली, तब भी मैं उनसे मिला था. उनके अंतर्मन में झांकने का मैंने निष्फल प्रयास भी किया था. उन्होंने किसी भी स्थिति में अपने मन की 'थाह' नहीं लगने दी. उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा- 'अब ठीक है, जो हो गया सो हो गया. अब आगे चलते हैं.' उन्होंने सोनिया गांधी या मनमोहनसिंह के प्रति तनिक-सा आक्रोश या खिन्नता व्यक्त नहीं की.
उनकी दैहिक भाषा से केवल यही प्रतीत हो रहा था- 'जैसे कि कुछ घटा ही न हो!' और सच भी है, ए.एस. की त्रासदियों की दुनिया में एक और त्रासदी शामिल हो गई. मुझे याद है, एक रोज जब मैं उनसे मिलकर लौट रहा था, तब एक सहायक ने मुझे सूचित किया कि 'रानी सा'ब आपसे फोन पर बात करना चाहती हैं.' मैं तुरंत ही एक दूसरे कमरे में गया और इंटरकॉम पर बात की. शुरुआती कुशल मंगल पूछने के बाद उन्होंने मुझसे कहा था- 'एक आदमी जो इस परिवार को वर्षों से अपना सर्वस्व दे रहा है, यदि उसे प्रेसीडेंट बना दिया जाता तो इस मैडम का क्या बिगड़ जाता?' उनके शब्दों और स्वरों में 'टीस' थी, निराशा थी. मैं चुपचाप उनकी पीड़ा को अपने मन में लिए कमरे से बाहर निकल आया.
पत्नी ने चंद्रास्वामी से मिलने से मना कर दिया
नरसिंहराव के जमाने में उनके गुरु चंद्रास्वामी मुझसे मिलने के लिए बहुत आतुर थे. हमारे अजीत जोगी, आलोक तोमर (पत्राकार) भी चंद्रास्वामी से मिलने के लिए हमारे पीछे पड़े रहे. लेकिन मैं इनकार करता रहा. पत्नी भी नहीं चाहती थी कि मैं चंद्रास्वामी से मिलूं. एक दिन चंद्रास्वामी का अचानक फोन आया और कहा कि मैं मिलने के लिए आ रहा हूं. मैं और मेरी पत्नी हक्के-बक्के रह गए. अब जब कोई व्यक्ति मिलने के लिए आ ही रहा है तो उसे कैसे भगाया जा सकता है? आधे घंटे के भीतर चंद्रास्वामी की कार पोर्च में आकर रूकी. हम लोग सरकारी कक्ष में बैठे. उन्होंने आध-पौन घंटे इधर-उधर की बातें कीं. किसी खास मुद्दे पर चर्चा किए बगैर ही वे उठकर चले गए.
एक महीने के बाद उन्होंने फिर से मिलने के लिए संदेश भेजा. मैंने वाइफ को बतलाया. वाइफ तो उन्हें शुरू से ही ना-पसंद करती थीं. वाइफ ने कहा- 'उनसे बिल्कुल मत मिलिए.' मैंने फिर कहा- 'जब कोई आ ही रहा है तो मैं भी उसे मना कैसे कर दूं? यह सुनकर वाइफ ने कहा- 'ठीक है. आप देख लीजिए इस बार चंद्रास्वामी आ ही नहीं पाएंगे.' और सचमुच हुआ भी यही. चंद्रास्वामी को जिस निर्धरित समय पर मुझसे मिलने के लिए आना था, उससे चंद मिनट पहले ही उनका फोन आ गया कि मैं नहीं आ सकता क्योंकि मुझे दस्त लग गए हैं! फिर कभी बाद में आउंगा. वाइफ की बात सही निकली. इसके बाद चंद्रास्वामी से फिर कभी मिलना नहीं हुआ. मैं जहां तक समझता हूं चंद्रास्वामी राव साहब (प्रधानमत्री) के इशारे पर मुझसे मिलकर हम दोनों के बीच सुलह कराने के चक्कर में थे. उनका सुलह-मिशन सफल नहीं हो सका. इसकी एक वजह यह भी थी कि मुझे उन्हें एक सच्चे संत के रूप में स्वीकार करने में कठिनाई हुआ करती थी. हालांकि मेरे कुछ करीबी लोग चाहते थे कि मैं चंद्रास्वामी से मेल-जोल रखूं, क्योंकि वे प्रधानमंत्री के बहुत विश्वसनीय हुआ करते थे.
जब कार व ट्रक के बीच सांई बाबा आ गए
मैं बैंगलूर के सांई बाबा से अवश्य मिलता रहा हूं. मैंने उन्हें हरदम सम्मान व आदर की दृष्टि से देखा है. मैंने उनमें पवित्र आचरण की झलक देखी है. मेरी उनसे पहले कोई खास जान-पहचान नहीं थी, लेकिन 1980 में मुख्यमंत्री बनने के पश्चात कुछ लोगों ने मुझसे कहा जरूर था कि मैं उनके दर्शन करूं. पर काम की व्यस्तता के कारण बैंगलूर की यात्रा टलती रही. एक दिन अजीब घटना घटी. हुआ यह कि मैं भोपाल से इंदौर के दौरे पर निकला हुआ था. उस रोज काफी पानी बरस रहा था. हम लोग भोपाल शहर की सीमा से जब बाहर निकले तो देखा कि हमारी कार सड़क पर काफी फिसलन की शिकार हो गई. सरकारी एम्बेस्डर कार सामने वाले ट्रक से टकराने जा रही थी कि मैंने देखा कि हमारी कार और ट्रक के ठीक बीच सांई बाबा हाथ दिखाते हुए खड़े हैं!
कार फिसलते-फिसलते किसी चमत्कारिक झटके के कारण ट्रक से टकराने से पहले ही रूक गई है. हम सभी सुरक्षित हैं. लेकिन गाड़ी को नुकसान जरूर हुआ. हमें उस दिन यात्रा बीच में ही समाप्त करनी पड़ी. मैं वापस भोपाल लौट आया.
इस घटना के एक-दो महीने बाद मैं परिवार के साथ सांई बाबा से मिलने उनके आश्रम गया. उन्होंने मुझे अलग से समय दिया. इससे पहले मैं उनसे कभी नहीं मिला था. मैंने तय भी किया था कि मैं सांई बाबा से सड़क दुर्घटना और उनकी चमत्कारिक उपस्थिति का उल्लेख नहीं करूंगा. बाबा ने ही मुझसे पूछा- 'तुमको कुछ याद है कि हम इससे पहले कहां मिले थे?' इसका उत्तर भी उन्होंने स्वयं दिया- 'वो सड़क दुर्घटना का दिन याद है?' मैंने सहमति में सिर हिलाया और घटना का विवरण दिया. मुझे यह सब कुछ आश्चर्यजनक जरूर लगा. इसके बाद से ही मैं उनके पास जाने लगा. उन पर मेरा विश्वास भी जमने लगा.
इस घटना के एक-दो महीने बाद मैं परिवार के साथ सांई बाबा से मिलने उनके आश्रम गया. उन्होंने मुझे अलग से समय दिया. इससे पहले मैं उनसे कभी नहीं मिला था. मैंने तय भी किया था कि मैं सांई बाबा से सड़क दुर्घटना और उनकी चमत्कारिक उपस्थिति का उल्लेख नहीं करूंगा. बाबा ने ही मुझसे पूछा- 'तुमको कुछ याद है कि हम इससे पहले कहां मिले थे?' इसका उत्तर भी उन्होंने स्वयं दिया- 'वो सड़क दुर्घटना का दिन याद है?' मैंने सहमति में सिर हिलाया और घटना का विवरण दिया. मुझे यह सब कुछ आश्चर्यजनक जरूर लगा. इसके बाद से ही मैं उनके पास जाने लगा. उन पर मेरा विश्वास भी जमने लगा.
इंदिराजी का बियाबान में अकेली महिला से मिलना
मुझे यहां एक और घटना याद आ रही है. यह घटना इंदिराजी के साथ यात्रा करते हुए घटी थी. इस घटना को भी मैं कभी भुला नहीं पाता हूं. घटना कुछ इस प्रकार घटित हुई थी- इंदिराजी केन्द्र में चुनाव हार चुकी थीं और हम लोग प्रदेश में. यह देश और राज्य में जनता पार्टी के शासन (1977) का दौर था. खंडवा लोकसभा सीट का उपचुनाव होने जा रहा था. उन दिनों मैं मध्य प्रदेश विधनसभा में कांग्रेस की ओर से प्रतिपक्ष का नेता हुआ करता था. चुनाव प्रचार के लिए हम लोग खंडवा पहुंच गए. देश की पूर्व प्रधानमंत्री व कांग्रेस अध्यक्षा इंदिरा गांधी भी चुनाव प्रचार के लिए पहुंची हुई थीं. मैं और मैडम (इंदिराजी) एक ही गाड़ी में सवार थे. भरी दुपहरी थी. लगभग एक बजा होगा. बियाबन जंगल से हम गुजर रहे थे. चारों तरफ सन्नाटा था. दूर-दूर तक कोई प्राणी नजर नहीं आ रहा था.
इंदिराजी आगे बैठी हुई थीं और मैं उनके पीछे बैठा हुआ था. वे चुनाव प्रचार में पीछे कभी नहीं बैठा करती थीं. अचानक उन्होंने ड्राइवर से गाड़ी रोकने को कहा. हम सब लोग चौंके क्योंकि सामने कोई दिखाई नहीं दे रहा था. मैंने देखा कि इस भयानक जंगल और कड़ी दुपहरी में एक महिला गहरे लाल वस्त्र पहने हुए सड़क किनारे माला लिए अकेले खड़ी थी. उसके आसपास या दूर-दूर तक कोई व्यक्ति नजर नहीं आ रहा था. हमारी गाड़ी महिला के कुछ फासले पर जाकर रूक गई. इंदिराजी गाड़ी से उतरीं और महिला के पास गईं. उस महिला ने उन्हें माला पहनाई. फिर मैडम ने हम लोगों से थोड़ा दूर जाकर उस महिला से अकेले में कुछ सेकेंड बातें कीं. फिर वापस कार में आकर बैठ गईं.
हम सभी लोग चल दिए. मुझे जिज्ञासा हो रही थी जानने की कि आखिर इस जंगल में यह महिला कौन हो सकती है? क्योंकि आसपास कोई गांव भी नजर नहीं आ रहा था. आखिर यह महिला कौन हो सकती है, जिसके साथ इंदिरा जी जैसी नेता ने अकेले में कुछ सैकंड बातें कीं? लेकिन मैं तथा दूसरे लोग मैडम से महिला के संबंध में पूछने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहे थे. मैडम ने भी अपन तरफ से एक शब्द भी नहीं कहा. वह महिला मेरे लिए रहस्य ही बनी रही. मैं आज तक उस घटना को नहीं भुला सका हूं.
जारी...
लेखक प्रवीण शर्मा मध्य प्रदेश से प्रकाशित मैग्जीन 'हैलो हिन्दुस्तान' के संपादक हैं. उन्होंने इस लेख में वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी द्वारा लिखी गई, ' अर्जुन सिंह : सहयात्री इतिहास का' से कई ऐसे प्रसंगों को सामने लाने का प्रयास किया है, जिससे लोग अब तक अनजान थे
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