Fact of life!

एवरीथिंग इज प्री-रिटन’ इन लाईफ़ (जिन्दगी मे सब कुछ पह्ले से ही तय होता है)।
Everything is Pre-written in Life..
Change Text Size
+ + + + +
Showing posts with label Anna Hajare. Show all posts
Showing posts with label Anna Hajare. Show all posts

Monday, December 26, 2011

1 अन्ना हजारे RSS के एजेंट है ? तो दिग्विजय !

अगर अन्ना हजारे RSS के एजेंट है तो दिग्विजय यहाँ क्या कर रहे है.?

Monday, September 12, 2011

0 Anna and Kapil


Saturday, September 3, 2011

0 बोल Corruption करेगा

Thursday, August 25, 2011

0 अन्ना हजारे


देख के इस बूढ़े को सारे बूढ़े यही कहेंगे बुढ़ा होगा तेरा बाप

0 इस दमन को आने वाली पीढ़ियां माफ नहीं करेंगी

यह दैत्याकार धक्का है। सरकार ने दिया है। कल लगा वह अन्ना हजारे का मान रखेगी। लगा क्यों? सरकार ने खुद कहा था। देर रात करोड़ों जन के मान मर्दन पर उतरे से दीखे मंत्री। राष्ट्र को दिया दंभपूर्ण उत्तर : 'अन्ना का अनशन उनकी समस्या है। हमें पता नहीं।' तो किसे पता है? ऐसे दमन को कौन माफ करेगा? क्यों अचानक बदल गए सरकारी तेवर?

कल तक सरकार को शक था कि वह अकेली है। अब सभी पार्टियों को बुलाकर बात की तो 'धक्क' से रह गए। सारे नेता, दलगत राजनीति से तत्काल ऊपर उठकर एक स्वर में एकजुट होते नजर आए। एक भी नहीं बोला कि अन्ना वाला जन लोकपाल बिल लाओ। हां, चूंकि विरोधी दल हैं- संसद में सरकारी बिल को कोस चुके हैं- सो फिर से कोस दिया। लेकिन अन्ना को लेकर सिर्फ एक बात : अनशन समाप्त करवाना जरूरी। किसी भी तरीके से। यानी छल से या बल से। बस, इसी विपक्षी एकता से बल मिला सरकार को। और उसकी आवाज इतनी खुरदुरी हो गई, यकीन न हुआ। वार्ता में शामिल किरण बेदी के शब्दों में 'प्रणव मुखर्जी तो ऐसा बर्ताव कर रहे थे कि हम उनसे बात करने पहुंचे ही क्यों हैं।' हल ढूंढना तो दूर, अन्ना के साथियों को फटकार तक लगाई सरकार ने। हालांकि देर रात, जैसा कि होना ही था, मुखर्जी इससे पलट गए। जन भावनाओं से ऐसे खिलवाड़ को क्या संवेदनशील लोग माफ करेंगे? क्यों हो गए सारे विपक्षी दल एकमत?

ज्यादा गहराई में उतरने की जरूरत ही नहीं है। सर्वदलीय बैठक से ठीक पहले संसद के दोनों सदनों में सांसदों ने खुद ही सब साफ कर दिया। सांसद मानो बरस रहे थे। भ्रष्टाचार के विरुद्ध युद्ध में सक्रिय लोगों पर। हम सब पर। चीख रहे थे कि क्या लोकपाल भगवान के यहां से आएगा? फ्लैशबैक देखें तो यही भाषा सरकार की थी, कपिल सिब्बल शब्दश : यही बोले थे। सरकार, वो भी ऐसी सरकार जिसके एक के बाद एक मंत्री भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे नजर आ रहे हों, जेल जा रहे हों,- उनकी हूबहू नकल विपक्षी करें, यह बिरला अवसर ही तो है। वो भी आवाज, अंदाज और मकसद सभी में। विरोधी दल इसलिए ऐसा कर रहे हैं क्योंकि उन्हीं के शब्दों में 'कुछ लोग लोकसभा को खत्म करने के षड्च्यंत्र में जुटे हैं, राज्यसभा दिखलाई ही नहीं देगी, अगर ये सफल हो गए।' ऐसा इसलिए क्योंकि अन्ना के अनुयाइयों ने सांसदों को घेरना शुरू कर दिया है। घिरने से बिफरे विरोधी दल इसलिए भ्रष्टाचार पर सरकार के साथ हो लिए। क्या मतदाता ऐसे विरोधी दलों को माफ करेगा? क्यों भरोसा करेगा अब देश सरकार पर?

फिलहाल किसी को किसी पर भरोसा न तो बचा है, न ही जरूरत है। ऐसे माहौल में लोगों को किसी मंत्री, नेता, किसी इंसान पर भरोसा करना ही नहीं चाहिए। सिर्फ कागजात पर भरोसा करना चाहिए। जुझारू बुजुर्ग गांधीवादी को अपने लिए लड़ते देख एक कृतज्ञ देश और उसकी पीढ़ियां क्या ऐसी कृतघ्न सरकार को माफ कर पाएंगी?

Source: कल्पेश याग्निक  

Tuesday, August 16, 2011

0 विश्व मीडिया में भी छा गए अन्ना हजारे








0 बेशरम कांग्रेस ने कैसे किया अन्ना का चरित्र हरण -वीडियो में देखिए

Sunday, August 14, 2011

0 मनमोहन जी आप गलत हैं इसलिए अमेरिका ने दी दखलः अन्ना

डॉ.  मनमोहन सिंह 14. 08.2011 प्रधानमंत्री भारत सरकार नई दिल्ली

प्रिय डॉ.  मनमोहन सिंह जी!


 मुझे यह पत्र आपको बेहद अफसोस के साथ लिखना पड़ रहा है। मैंने 18 जुलाई 2011 को लिखे एक पत्र में आपको कहा था कि अगर सरकार संसद में एक सख्त लोकपाल बिल लाने का अपना वादा पूरा नहीं करती है तो मैं 16 अगस्त से फिर से अनिश्चिकालीन उपवास शुरू करूंगा।  मैंने कहा था कि इस बार हमारा अनशन तब तक जारी रहेगा जब तक 'जनलोकपाल बिल' के तमाम प्रावधान डालकर एक सख्त और स्वतंत्र लोकपाल बिल संसद में नहीं लाया जाता।

जंतर मंतर पर अनशन करने के लिए, हमने 15 जुलाई 2011 को पत्र लिखकर आपकी सरकार से अनुमति मांगी थी। उस दिन से लेकर आज तक हमारे साथी दिल्ली पुलिस के अलग-अलग थानों, दिल्ली नगर निगम, एनडीएमसी, सीपीडब्ल्यू डी, और शहरी विकास मंत्रालय के लगभग हर रोज चक्कर काट रहे हैं।

अब हमें बताया गया है कि हमें केवल तीन दिन के लिए उपवास की अनुमति दी जा सकती है। मुझे समझ में नहीं आता कि लोकशाही में अपनी बात कहने के लिए इस तरह की पाबन्दी क्यों? किस कानून के तहत आप इस तरह की पाबन्दी लगा सकते हैं? इस तरह की पाबन्दी लगाना संविधान के खिलाफ हैं और उच्चतम न्यायालय के तमाम निर्देशों की अवमानना हैं। जब हम कह रहे हैं कि हम अहिंसापूर्वक, शांतिपूर्वक अनशन करेंगे, किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाएंगे तो यह तानाशाही भरा रवैया क्यों? देश में आपातकाल जैसे हालात बनाने की कोशिश क्यों की जा रही है?

संविधान में साफ-साफ लिखा है कि शांतिपूर्वक इकट्ठा होकर, बिना हथियार के विरोध प्रदर्शन करना हमारा मौलिक अधिकार है। क्या आप और आपकी सरकार हमारे मौलिक अधिकारों का हनन नहीं कर रहे? जिन अधिकारों और आज़ादी के लिए हमारे क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों ने कुर्बानी दी, स्वतंत्रता दिवस के दिन पहले क्या आप उसी आज़ादी को हमसे नहीं छीन रहे हैं? मैं सोच रहा हूं कि 65 वें स्वतंत्रता दिवस पर आप क्या मुंह लेकर लाल किले पर ध्वज फहराएंगे?

पहले हमें जंतर मंतर की इजाज़त यह कहकर नहीं दी गई कि हम पूरी जंतर मंतर रोड को घेर लेंगे और बाकी लोगों को प्रदर्शन करने की जगह नहीं मिलेगी। यह सरासर गलत है क्योंकि पिछली बार हमने जंतर मंतर रोड का केवल कुछ हिस्सा इस्तेमाल किया था। फिर भी हमने आपकी बात मानी, और चार नई जगहों का सुझाव दिया- राजघाट, वोट क्लब, रामलीला मैदान और शही पार्क। रामलीला मैदान के लिए तो हमें दिल्ली नगर निगम से भी अनुमति मिल गई थी लेकिन आपकी पुलिस ने इस मुद्दे पर कई दिन भटकाने के बाद चारों जगहों के लिए मना कर दिया।

मना करने के पीछे एक भी जगह के लिए कोई वाजिब कारण नहीं था। सिर्फ मनमानी भरा रवैया था। हमने कहा आप दिल्ली के बीच कोई भी ऐसा स्थान दे दीजिए जो मेट्रो और बसों से जुड़ा हो, अंततः हमें जेपी। पार्क दिखाया गया, जो हमने मंजूर कर लिया। अब आपकी पुलिस कहती है कि यह भी केवल तीन दिन के लिए दिया जा सकता है। क्यों? इसका भी कोई कारण नहीं बताया जा रहा। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेशों में साफ-साफ कहा है कि सरकार मनमाने तरीके से लोगों के इस मौलिक अधिकार का हनन नहीं कर सकती।

क्या इन सबसे तानासाही की गंध नहीं आती? संविधान के परखच्चे उड़ाकर, जनतंत्र की हत्या कर, जनता के मौलिक अधिकारों को रौंदना क्या आपको शोभा देता है?

लोग कहते हैं कि आपकी सरकार आज़ादी के बाद की सबसे भ्रष्ट सरकार है। हालांकि मेरा मानना है कि हर अगली सरकार पिछली सरकार से ज्यादा भ्रष्ट होती है। लेकिन भ्रश्टाचार के खिलाफ़ आवाज़ उठाने वालो को कुचलना, यह आपके समय में कुछ ज्यादा ही हो रहा है। स्वामी रामदेव के समर्थकों की सोते हुए आधी रात में पिटाई, पुणे के किसानों पर गोलीबारी जैसे कितने ही उदाहरण हैं जो आपकी सरकार के इस चरित्र का नमूना पेश करते हैं। यह बहुत चिंता का विषय है।

हम आपको संविधान की आहूति नहीं देने देंगे। हम आपको जनतंत्र का गला नहीं घोंटने देंगे। यह हमारा भारत है। इस देश के लोगों का भारत। आपकी सरकार तो आज है, कल हो न हो।

बड़े खेद की बात है कि आपके इन ग़लत कामों की वजह से ही अमेरिका के हमारे लोकतंत्र के आंतरिक मामलों में दखल देने की हिम्मत हुई। भारत अपने जनतांत्रिक मूल्यों की वजह से जाना जाता रहा है। लेकिन अंतराष्ट्रीय स्तर पर आज उन मूल्यों को ठेस पहुंची है। यह बहुत ही दुख की बात है।

मैं यह पत्र इस उम्मीद से आपको लिख रहा हूं कि आप हमारे मौलिक अधिकारों की रक्षा करेंगे। क्या भारत का प्रधानमंत्री दिल्ली के बीच अनशन के लिए हमें कोई जगह दिला सकता है? आज यह सवाल मैं आपके सामने खड़ा करता हूं।

आपकी उम्र 79 साल है। देश के सर्वोच्च पद पर आप आसीन हैं। जिंदगी ने आपको सब कुछ दिया। अब आपको जिंदगी से और क्या चाहिए। हिम्मत कीजिए और कुछ ठोस कदम उठाइए।

मैं और मेरे साथी, देश के लिए अपना जीवन कुर्बान करने के लिए तैयार हैं। 16 अगस्त से अनशन तो होगा। लाखों लोग देश भर में सड़कों पर उतरेंगे। यदि हमारे लोकतंत्र का मुखिया भी अनशन के लिए कोई स्थान देने में असमर्थ रहता है तो हम गिरफ्तारी देंगे और अनशन जेल में होगा।

संविधान और लोकतंत्र की रक्षा करना आपका परम कर्तव्य है। मुझे उम्मीद है कि आप मौके की नज़ाकत को समझेंगे और तुरंत कुछ करेंगे।

भवदीयअन्ना हज़ारे

Sunday, August 7, 2011

1 अंबर तक यही नाद गूंजेगा-Anna Hazare- Ambar tak yahi naad goonjega

Monday, April 25, 2011

0 भ्रष्‍ट व्‍यवस्‍था को उड़ा ले जाएगी अन्‍ना की आंधी-Anna Hajare

देश भर में अन्ना हजारे की जय जयकार, भ्रष्टाचार के ख़िला़फ आंदोलन की गूंज, शहरी युवाओं का सड़कों पर उतरना और कैंडिल मार्च, यह सब एक नई राजनीति की शुरुआत के संकेत हैं. भारत की राजनीति एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जहां सत्तापक्ष और विपक्ष के मायने बदल गए हैं. सत्तापक्ष में कांग्रेस पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और अन्य राजनीतिक दलों के साथ-साथ ब्यूरोक्रेसी है और उसके विरोध में देश की जनता खड़ी है. मतलब यह कि एक तऱफ देश चलाने वाले लोग हैं और दूसरी तऱफ देश की जनता है. आज दोनों एक-दूसरे के विरोध में खड़े दिख रहे हैं. देश चलाने वालों ने सरकारी तंत्र को इतना सड़ा-गला दिया है कि लोगों का विश्वास टूटकर बिखरने लगा है. राजनीतिक दलों की साख दांव पर है. एक तऱफ देश की जनता है, जो भ्रष्टाचार को ख़त्म करना चाहती है, सरकार से बस इतनी उम्मीद करती है कि वह ईमानदारी से अपने दायित्व निभाए. दूसरी तऱफ सरकार और राजनीतिक दल हैं, जिन्होंने मान लिया है कि चुनाव जीतते ही उन्हें देश में मनमानी करने का हक़ मिल गया है. अगर ऐसा नहीं है तो इस सवाल का जवाब कौन देगा कि भ्रष्टाचार से लड़ने वाला लोकपाल क़ानून 42 साल से क्यों लागू नहीं हुआ. क्यों बोफोर्स घोटाले के आरोपी को छोड़ दिया जाता है. क्यों बड़े-बड़े घोटाले अंजाम देने वाले ताक़तवर नेता छूट जाते हैं. घोटाले में शामिल किसी बड़े अधिकारी को आज तक सज़ा क्यों नहीं मिली. क्यों घोटाले में नाम आने पर मंत्रियों का इस्ती़फा ही उनकी सज़ा मान लिया जाता है.

यह वाकई शर्म की बात है कि जो देश भ्रष्टाचार से त्रस्त है, उस देश में भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कारगर क़ानून नहीं है. जो क़ानून है भी, वह स़िर्फ छोटे मोटे भ्रष्टाचारियों को सज़ा दिलवा सकता है. लोकपाल बिल की ज़रूरत इसलिए है, क्योंकि यह देश का अकेला क़ानून होगा, जिससे जनता भ्रष्टाचार के मामले को उजागर करके मंत्रियों और अधिकारियों को सज़ा दिलवा सकती है. जनता के हाथ में भ्रष्टाचार का यह सबसे शक्तिशाली हथियार बनेगा. अब तक देश में कोई ऐसा क़ानून नहीं है, जो आम जनता को उच्च स्थानों पर होने वाले भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने और सज़ा दिलाने का मौक़ा देता है. भारत के प्रजातंत्र को लूटतंत्र बनने से रोकने के लिए यह क़ानून सरकार को लाना ही होगा. सरकार को यह समझना होगा कि सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार और घोटालों से लोग तंग आ चुके हैं. सरकार और विपक्ष दोनों से लोग नाराज़ हैं. जनता इन घोटालों के लिए सरकार को ज़िम्मेदार मानती है और विपक्ष से वह इस बात के लिए नाराज़ है कि भ्रष्टाचार के ख़िला़फ देशव्यापी आंदोलन करने में विपक्षी पार्टियां अब तक असफल रही हैं. लोगों को लगने लगा है कि इस लूटतंत्र में सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों की ही मिलीभगत है. देश के लिए यह गंभीर स्थिति है. अब भ्रष्टाचार के सवाल को टाला नहीं जा सकता है.

यही वजह है कि जंतर-मंतर पर जब शरद यादव जैसे अनुभवी और साफ छवि वाले नेता बोलने के लिए उठे तो लोगों ने उन्हें बैठा दिया. हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला और मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को तो लोगों ने मंच पर चढ़ने तक नहीं दिया. भारतीय जनता पार्टी के लिए यह शर्मनाक स्थिति है. अगर उसने कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदुरप्पा के ख़िला़फ कार्रवाई की होती तो आज वह भ्रष्टाचार के ख़िला़फ आंदोलन का नेतृत्व कर सकती थी. आज हालत ऐसी है कि सरकार के ख़िला़फ देशव्यापी आंदोलन हो रहा है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी का कोई भी नेता यह हिम्मत जुटा नहीं सका कि वह इस आंदोलन में शामिल भी हो सके. सरकार और विपक्ष को यह समझना होगा कि लोगों के बीच उनकी साख इतनी ख़त्म हो गई है कि देश का युवा वर्ग अब राजनीतिक नेताओं की बातों को सुनना तक पसंद नहीं करता. ऐसे में जब अन्ना हजारे जैसे लोग आंदोलन करते हैं तो उन्हें जनसमर्थन मिलता है. जिन लोगों का राजनीति से कोई वास्ता नहीं है, वे भी इस आंदोलन को समर्थन दे रहे हैं. ये लोग राजनीतिक दलों की रैलियों की तरह भाड़े पर लाए गए लोग नहीं हैं. नारे लगाने के लिए इन्हें पैसे नहीं दिए जा रहे हैं. ये लोग भ्रष्टाचार के ख़िला़फ एक कड़ा क़ानून चाहते हैं. दु:ख की बात यह है कि इतना सब कुछ होने के बाद भी देश चलाने वालों की नीयत का पता नहीं चल पाया है. यह भी पता नहीं चल पाया है कि सरकार भ्रष्टाचार से लड़ना चाहती है भी या नहीं.

लोकपाल क़ानून लागू करने और जनता की भावनाओं के मुताबिक़ इसे तैयार करने की मांगों को पूरा करने के लिए 72 साल के अन्ना हजारे ने आमरण अनशन की शुरुआत की. अनशन करने का फैसला किसी संयोगवश या अचानक नहीं लिया गया. अन्ना हजारे सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को दिसंबर के महीने से चिट्ठी लिख रहे थे, लेकिन जवाब तो दूर, उनका एकनालेजमेंट भी नहीं आया. फिर जब फरवरी में अन्ना हजारे ने प्रधानमंत्री को यह लिखकर भेजा कि लोकपाल बिल को अगर नहीं लाया गया और उसमें बदलाव नहीं किए गए तो वह 5 अप्रैल से भूख हड़ताल पर बैठ जाएंगे. यह चिट्ठी मिलते ही प्रधानमंत्री ने अन्ना हजारे को बातचीत का न्योता भेज दिया. 7 मार्च को अन्ना हजारे ने मनमोहन सिंह से मुलाक़ात की थी. लोकपाल बिल के बारे में अपनी राय दी थी. सरकार जिस रूप में लोकपाल बिल लाना चाहती है, उसमें अन्ना हजारे और देश के दूसरे स्वयंसेवी संगठन बदलाव चाहते हैं. उन्हें इस बात का डर है कि सरकार जिस बिल को लाना चाहती है, उससे फायदा नहीं होने वाला है. एक दंतहीन और विषहीन क़ानून से बेहतर क़ानून का न होना है. ऐसे लोकपाल बिल का क्या फायदा, जिससे भ्रष्ट मंत्रियों और अधिकारियों को पकड़ा न जा सके. केंद्र सरकार की बातों पर इसलिए भरोसा उठ गया है, क्योंकि कुछ ही दिनों पहले सरकार ने आरटीआई क़ानून को कमज़ोर करने की कोशिश की थी. ऐसे बदलाव करने का मतलब साफ है कि सरकार देश की जनता को वे अधिकार देना नहीं चाहती, जिससे वह सरकार की समस्त जानकारियों से रूबरू हो सके, भ्रष्ट और ग़ैर क़ानूनी कारनामों का पर्दाफाश हो सके. अफसोस तो इस बात का है कि यह सब कुछ ऐसे प्रधानमंत्री के नेतृत्व में हो रहा है जिनकी छवि एक ईमानदार नेता की है.

लोकपाल बिल का भविष्य कहीं आरटीआई क़ानून की तरह न हो जाए, इसलिए अन्ना हजारे और उनके साथी चाहते हैं कि इस क़ानून को बनाने के लिए जो कमेटी बनेउसमें  अधिकारियों और आम लोगों की बराबर भागीदारी हो. जब मननोहन सिंह ने अन्ना हजारे के इस सुझाव को नामंजूर कर दिया तो वह आमरण अनशन पर बैठ गए. 5 अप्रैल को दिल्ली में अन्ना हजारे के साथ अनशन करने वालों की संख्या 129 थी. दूसरे दिन यह संख्या 147 हुई और तीसरे दिन अनशन करने वालों की संख्या 316 हो गई.  सराहनीय बात यह है कि दिल्ली के विरोध प्रदर्शन में शामिल होने वाले लोग आम लोग थे, नौकरी-पेशा वाले लोग थे, ज़्यादातर युवा थे, आईआईटी में पढ़ने वाले इंजीनियर और मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहे डॉक्टर थे. मीडिया की मदद से अन्ना हजारे अपना संदेश देश के अलग-अलग हिस्सों तक पहुंचाने में कामयाब रहे. देश की जनता राजनीतिक नेताओं और सरकारी तंत्र से इतनी नाराज़ हैं कि अन्ना हजारे के समर्थन में देश के क़रीब 400 छोटे-बड़े शहरों में क़रीब सात लाख लोगों ने अनशन किया.

कांग्रेस की राजनीति को समझना ज़रूरी है. पिछले कुछ महीनों से देश में घोटाले ही घोटाले हो रहे हैं. सरकार और पार्टी वैसे ही बैकफुट पर थी, क्योंकि इन घोटालों में उसके मंत्री और सरकार के लोगों का नाम आ रहा था. यह समझना भी ज़रूरी है कि घोटालों का पर्दाफाश होने का सिलसिला अभी नहीं रुका है. आगे आने वाले दिनों में भी नए घोटालों का पर्दाफाश होगा और सरकार की किरकिरी होगी. जनता में इन घोटालों को लेकर रोष है. भ्रष्टाचार के मुद्दे पर विपक्ष के हमले तेज हो गए. सरकार ने विपक्ष को एक करारा जवाब देने की तैयारी की. उसने यह सोचा कि लोकपाल बिल को लाकर विरोधियों को चुप किया जा सकता है. मतलब यह कि जो लोकपाल बिल सरकार लाना चाहती है, वह भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने के संकल्प की वजह से नहीं है, बल्कि राजनीति की एक चाल है, जिससे विपक्ष और विरोधियों को चुप कराया जा सके. घोटालों में फंसी सरकार के लिए बस एक ज़रिया है, जिससे वह यह कह सके कि भ्रष्टाचार की लड़ाई में हम विपक्षी पार्टियों से आगे हैं. यही वजह है कि सरकारी लोकपाल बिल एक छलावा है, क्योंकि इस क़ानून के हाथ भ्रष्ट अधिकारियों और जजों के गिरेबान को पकड़ने में असमर्थ है.

अन्ना हजारे के आंदोलन ने कांग्रेस पार्टी और सोनिया गांधी की मुसीबत बढ़ा दी. इस मुसीबत का वास्ता राहुल गांधी की राजनीति से है. कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी को युवाओं के नेता के रूप में पेश करने की रणनीति पर काम कर रही है. वह राहुल गांधी को 21वीं सदी के भारत के नेता की तरह पेश करना चाहती है. लेकिन जिस तरह इंटरनेट पर सोशल नेटवर्क पर अन्ना के आंदोलन ने रफ्तार पकड़ी, उससे कांग्रेस के रणनीतिकारों के होश उड़ गए. राहुल गांधी को जिस युवा वर्ग का नेता बनाया जा रहा है, उस युवा वर्ग का समर्थन अन्ना हजारे के साथ नज़र आ रहा था. व़क्त के साथ-साथ इस आंदोलन में युवाओं का समर्थन बढ़ने लगा. कांग्रेस पार्टी और सोनिया गांधी को यह बात समझ में आ गई कि इस आंदोलन को अगर लंबा खींचा गया तो सबसे ज़्यादा नुक़सान राहुल गांधी को होने वाला है. इसलिए अनशन के दूसरे ही दिन से बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया. इस दौरान राहुल गांधी चुप ही रहे. कांग्रेस पार्टी की दूसरी मुसीबत यह है कि पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं. बिहार चुनाव में हार के बाद इन राज्यों के चुनाव कांग्रेस पार्टी के लिए महत्वपूर्ण हैं. आंदोलन का असर चुनाव पर दिखने लगा. अनशन के दूसरे दिन राहुल गांधी और सोनिया गांधी तमिलनाडु में चुनाव प्रचार करने पहुंचे थे. वहां खाली कुर्सियों से उनका स्वागत हुआ. लोग उन्हें देखने तक नहीं पहुंचे. कांग्रेस पार्टी के पास अन्ना हजारे के सामने झुकने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा. इसलिए मनमोहन सिंह सरकार द्वारा अन्ना हजारे के सामने जो पेशकश हुई, वह भ्रष्टाचार को ख़त्म करने की नीयत से नहीं, बल्कि राजनीतिक रणनीति का परिणाम है.

सरकार की नीयत पर इसलिए सवाल उठ रहा है, क्योंकि सरकार जैसा लोकपाल बनाना चाहती है, वह भ्रष्ट अधिकारियों, मंत्रियों और जजों को नहीं पकड़ सकेगा. सरकार जिस तरह का लोकपाल चाहती है, उसके आसानी से राजनीति का शिकार बन जाने का ख़तरा रहेगा, क्योंकि इसमें सारे अधिकार नेताओं को ही दिए गए हैं. सरकार को यह जवाब देना चाहिए कि उसने ऐसा बिल क्यों तैयार किया, जो भ्रष्ट अधिकारियों और भ्रष्ट जजों को लोकपाल के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखता है. सवाल यह है कि भ्रष्टाचार को जड़ से ख़त्म करने वाला क़ानून इतना कमज़ोर क्यों बनाया गया. सरकार जो बिल ला रही है, उसमें किसी भी मामले में जांच हो या नहीं हो, इसका फैसला लोकसभा के स्पीकर और राज्यसभा के  चेयरमैन के हाथ में दिया गया है. अगर ऐसा होगा तो कोई भी मामला सामने आते ही उस पर राजनीतिक नियंत्रण हो जाएगा. जिस पार्टी का लोकसभा स्पीकर या राज्यसभा का चेयरमैन होगा, वह अपने हिसाब से फैसले लेगा. जिस तरह देश की दूसरी एजेंसियों का राजनीतिकरण हो गया है, उसी तरह इसका भी हश्र हो जाएगा. अब लोकसभा का स्पीकर कौन होता है. स्पीकर सत्तापक्ष का होता है. अब यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि स्पीकर के फैसले में पक्षपात नहीं होगा. वैसे यह बात सुनने में थोड़ी अटपटी ज़रूर लगती है, लेकिन सच्चाई यही है कि लोकसभा के स्पीकर ख़ुद को दलगत राजनीति से ऊपर नहीं कर पाए हैं. देश में ऐसे कई लोकसभा स्पीकर हुए हैं, जो बाद में मंत्री बने हैं. अब सवाल यह है कि अगर नेताओं को ही सब फैसले लेने हैं तो आम आदमी के हाथ में क्या है.

फर्ज़ कीजिए कि ए राजा का केस लोकपाल के सामने आया. लोकसभा जाते ही यह मामला स्पीकर के पास पहुंचता और जिस तरह से प्रधानमंत्री और कांग्रेस के प्रवक्ता ने ए राजा को क्लीन चिट दी थी, अगर वैसा ही बर्ताव लोकसभा के स्पीकर का होता तो क्या होता. लोकपाल बैठे रहते और ए राजा आराम से टेलीकाम मंत्रालय में भ्रष्टाचार फैलाते रहते. अगर सरकार भ्रष्टाचार को सचमुच ख़त्म करना चाहती है तो फिर ऐसा बिल ही क्यों ला रही है, जिससे कुछ फर्क़ ही नहीं पड़ने वाला है. इस बिल की दूसरी सबसे बड़ी खामी यह है कि यह स़िर्फ सुझाव देने के लिए है. इसमें भ्रष्टाचारियों को सज़ा दिलाने, उनकी संपत्ति ज़ब्त करने, शिकायत की सुनवाई और एफआईआर कराने का कोई प्रावधान नहीं है. अब सरकार ऐसे बिल को लाकर किस तरह भ्रष्टाचार से लड़ेगी. यही वजह है कि जनता को नेताओं की नीयत पर शक होता है. अब सवाल उठता है कि लोकपाल बिल अगर स़िर्फ सुझाव देने के लिए है तो ए राजा, कलमाडी और पी जे थॉमस जैसे पहुंचे हुए लोगों को कैसे पकड़ा जा सकता है. देश में भ्रष्टाचार करने वाले जब बड़े-बड़े अधिकारी, नेता और उद्योगपति हैं तो भ्रष्टाचार ख़त्म करने वाला क़ानून दंतहीन-विषहीन कैसे हो सकता है.

कांग्रेस पार्टी कहती है कि क़ानून बनाने का काम सरकार और कार्यपालिका का है. सरकार ऐसा कोई प्रिसीडेंट सेट करना नहीं चाहती, जिसमें कोई दबाव डालकर, बंदूक की नोंक पर, भूख हड़ताल या ब्लैकमेल करके फैसले को इन्फ्लूएंस कर सके. कांग्रेस पार्टी का मानना है कि जो लोग भूख हड़ताल कर रहे हैं, वे न तो सांसद हैं, न ही मंत्री और न ही अधिकारी हैं, इसलिए उन्हें क़ानून बनाने वाली कमेटी में शामिल नहीं किया जा सकता है. सवा सौ साल पुरानी पार्टी यह कैसे भूल गई कि प्रजातंत्र की आत्मा संवैधानिक प्रक्रिया में नहीं, लोकमत और जनमत में रहती है. जिस प्रजातंत्र में जनमत को प्रमुखता नहीं दी जाती, वह प्रजातंत्र बिखर जाता है. जिस देश में जनमत का अनादर होता है, उस देश के प्रजातंत्र की प्रासंगिकता ख़त्म हो जाती है. जिस देश की संसद जनता की अपेक्षा और भावनाओं को ध्यान में रखकर क़ानून नहीं बनाती, वहां विद्रोह हो जाता है. सरकार लोकनायक जय प्रकाश नारायण को कैसे भूल गई, सरकार 1974 की संपूर्ण क्रांति को कैसे भूल गई, जिसमें छात्रों और युवाओं ने आंदोलन किया और इंदिरा गांधी को सत्ता से हटना पड़ा था. समझने वाली बात यह है कि अन्ना हजारे के इस आंदोलन में शहरी युवाओं ने भरपूर हिस्सा लिया.

अन्ना हजारे जिस तरह का लोकपाल चाहते हैं, उसमें अधिकारी, मंत्री, नेता, जज और उद्योगपति घोटाला करके बच नहीं पाएंगे. यह लोकपाल घोटाले में लूटी गई राशि को वापस सरकारी खजाने में जमा कराने की बात करता है. यह भ्रष्टाचारियों को सज़ा दिलाने की बात करता है. यह बिल भ्रष्टाचार की सूचना या जानकारी देने वाले व्यक्ति को सुरक्षा देता है. यह बिल लोकपाल को राजनीतिक दबाव से बाहर रखता है. यह बिल लोकपाल को एक पारदर्शी संस्था बनाता है, लेकिन सरकार ने इन सुझावों को मानने से इंकार कर दिया. अन्ना हजारे यह नहीं चाहते हैं कि जो बिल उन लोगों ने बनाया है, उसे अक्षरश: लागू कर दिया जाए. उनकी मांग यह है कि इस क़ानून को बनाने में सरकार के साथ आम जनता भी भागीदार बने, लेकिन प्रधानमंत्री ने यह कहकर मना कर दिया कि इस बिल को बनाने के लिए मंत्रियों का एक समूह बनाया गया है. आप अपना सुझाव दे सकते हैं.

ऐसा लगता है कि मानो राजनीतिक दल और नेताओं की चिंता भ्रष्टाचार ख़त्म करना नहीं है. उन्हें यह डर सता रहा है कि अगर एक सशक्त और असरदार लोकपाल बिल पास हो गया तो वे भ्रष्टाचार कैसे करेंगे, वह कैसे पैसा कमाएंगे. चुनाव के लिए करोड़ों रुपये कैसे जमा करेंगे, उद्योगपतियों के साथ मिलकर देश को कैसे लूटेंगे और ख़ुद को जेल जाने से कैसे बचाएंगे. अब देश की जनता को भी फैसला करना होगा. जिस तरह जय प्रकाश नारायण के साथ देश के युवाओं ने आंदोलन किया था, उसी तरह अन्ना हजारे का साथ देने के लिए भी युवाओं, किसानों एवं मज़दूरों को आगे आना होगा और लड़ना होगा. देश के सामने एक ऐतिहासिक मौक़ा है, जिसे गंवाना भविष्य के लिए बेहद महंगा साबित होगा.

Courtesy डा. मनीष कुमार-chauthidunia

 


Monday, April 18, 2011

0 अन्ना एक, साजिश अनेक



click to enlarge

Saturday, April 9, 2011

0 एकजुट राष्ट्र की जीत का यह मात्र पहला पड़ाव

ईमानदारी जगमगाई। भ्रष्टतंत्र हारा। जनतंत्र जीता। इतनी जल्दी? पलक झपकते? बड़ा आश्चर्य। विचित्र प्रश्न। अनेक शंकाएं। इतना आसान? था क्या? सत्ताधीश झुके। क्या सचमुच? 

निश्चित ही। मांगें मानी। शर्ते स्वीकारीं। समिति बनेगी। दो-दो अध्यक्ष। एक सरकारी। एक सामाजिक। प्रारूप बनेगा। जनभागीदारी से। कानून बनेगा। जनलोकपाल कानून। भ्रष्टतंत्र हारेगा। जनता जीतेगी। 

यहीं ठहरिए। इतना आसान? सतर्क रहिए। सरकार है। स्वार्थ हैं। कारण हैं। सामने अन्ना। अन्ना हजारे। छोटी शुरुआत। विराट बनीं। लाखों लोग। करोड़ों हाथ। गुस्सा उग्र। भावनाएं तेज। बड़े-बड़े एकजुट। उठते-बैठते समर्थन। सरकार सतर्क। मंत्री भौचक। समाजसेवी आए। बुद्धिजीवी जुटे। युवा डटे। राष्ट्र जगा। सारा राष्ट्र। सच्च मन। अच्छी सोच। पवित्र उद्देश्य। 

सत्ताधीश हिले। कुर्सी कांपी। तेज हरकत। गजब दिमाग। बड़ा दिखावा। चेहरे बदले। पहने मुखौटे। ओढ़े लबादे। आश्वासन के। कागज के। मंजूरी के। उदारता के। राष्ट्रहित के। बताई जीत। देश की। जनता की। लिया श्रेय। किया तमाशा। बजाई तालियां। सतर्क रहें। आंखें खोलें। सावधानी रखें। जीत नहीं। पड़ाव है। झुके कौन? रुके हैं। रोका है। उफान को। सैलाब को। क्रोध को। 

Courtesy Source: Kalpesh Yagnik