कई बार लोगों को यह कहते हुए सुना जाता है कि प्राचीन वैदिक काल में भी सोमरस के रूप मे शराब का प्रचलन था। दूसरी तरफ हम देखते हैं कि वैदिक काल में आचार-विचार की इतनी पवित्रता का ध्यान रखा जाता था। बड़ा विरोधाभाष लगता है कि जिस समय की संस्कृति में धर्म-अध्यात्म इतना प्रचलित था तब के लोग शराब जैसी किसी नशीली वस्तु का उपयोग करते हों। क्योंकि धर्म-अध्यात्म की पुस्तकों में हम जगह जगह पर नशे की निंदा या बुराई सुनते हैं। सोमरस शराब जैसा ही पेय पदार्थ था इस बात का खंडन करने के लिये आइये हम कुछ वैदिक मंत्रों का ही उदाहरण लेते हैं-
मन्त्र: सुतपात्रे ............ दध्याशिर: ।। (ऋग्वेद-1/5/5)
अर्थ- यह निचोडा हुआ शुद्ध दधिमिश्रित सोमरस , सोमपान की प्रबल इच्छा रखने वाले इन्द्र देव को प्राप्त हो ।।
मन्त्र: तीव्रा: ....... तान्पिब ।। (ऋग्वेद-1/23/1)
अर्थ- हे वायुदेव यह निचोडा हुआ सोमरस तीखा होने के कारण दुग्ध में मिश्रित करके तैयार किया गया है। आइये और इसका पान कीजिये ।।
मन्त्र: शतं वा य: शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम् । एदुनिम्नं न रीयते ।। (ऋग्वेद-1/30/2)
अर्थ- नीचे की ओर बहते हुए जल के समान प्रवाहित होते सैकडो घड़े सोमरस में मिले हुए हजारों घडे दुग्ध मिल करके इन्द्र देव को प्राप्त हों।
इन सभी मन्त्रों में सोम में दही और दूध को मिलाने की बात कही गई है। जबकि यह सभी जानते हैं कि शराब में दूध और दही नहीं मिलाया जा सकता। अत: यह बात का स्पष्ट हो जाती है कि सोमरस जो भी हो लेकिन वह शराब जैसी नशा करने वाली हानिकारक वस्तु तो नहीं थी।
ऋग्वेद में आगे सोमरस के बारे में और भी वर्णन है। एक जगह पर सोम की इतनी उपलब्धता और प्रचलन दिखाया गया है कि इंसानों के साथ साथ गायों तक को सोमरस भरपेट खिलाये और पिलाये जाने की बात कही गई है।
अत: तमाम विश्लेषण और विचार करने पर यही नतीजा निकलता है कि सोमरस शराब नहीं बल्कि आजकल प्रचलित लस्सी की तरह ही कोई सामान्य पोष्टिक पेय पदार्थ रहा होगा जिसे सामान्य जन भी प्रतिदिन पीया करते थे।
मन्त्र: सुतपात्रे ............ दध्याशिर: ।। (ऋग्वेद-1/5/5)
अर्थ- यह निचोडा हुआ शुद्ध दधिमिश्रित सोमरस , सोमपान की प्रबल इच्छा रखने वाले इन्द्र देव को प्राप्त हो ।।
मन्त्र: तीव्रा: ....... तान्पिब ।। (ऋग्वेद-1/23/1)
अर्थ- हे वायुदेव यह निचोडा हुआ सोमरस तीखा होने के कारण दुग्ध में मिश्रित करके तैयार किया गया है। आइये और इसका पान कीजिये ।।
मन्त्र: शतं वा य: शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम् । एदुनिम्नं न रीयते ।। (ऋग्वेद-1/30/2)
अर्थ- नीचे की ओर बहते हुए जल के समान प्रवाहित होते सैकडो घड़े सोमरस में मिले हुए हजारों घडे दुग्ध मिल करके इन्द्र देव को प्राप्त हों।
इन सभी मन्त्रों में सोम में दही और दूध को मिलाने की बात कही गई है। जबकि यह सभी जानते हैं कि शराब में दूध और दही नहीं मिलाया जा सकता। अत: यह बात का स्पष्ट हो जाती है कि सोमरस जो भी हो लेकिन वह शराब जैसी नशा करने वाली हानिकारक वस्तु तो नहीं थी।
ऋग्वेद में आगे सोमरस के बारे में और भी वर्णन है। एक जगह पर सोम की इतनी उपलब्धता और प्रचलन दिखाया गया है कि इंसानों के साथ साथ गायों तक को सोमरस भरपेट खिलाये और पिलाये जाने की बात कही गई है।
अत: तमाम विश्लेषण और विचार करने पर यही नतीजा निकलता है कि सोमरस शराब नहीं बल्कि आजकल प्रचलित लस्सी की तरह ही कोई सामान्य पोष्टिक पेय पदार्थ रहा होगा जिसे सामान्य जन भी प्रतिदिन पीया करते थे।
Courtesy Bhaskar -धर्म डेस्क, उज्जैन
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