बिहार के नक्सल प्रभावित कैमूर जिले में बच्चों को शिक्षा की ओर मोड़ने के उद्देश्य से लगाए गए पोस्टर पर बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन द्वारा आपत्ति. आपको बिहार पुलिस को आपकी फोटो लगाने की अनुमति न देने के लिए। शर्म करिए अमिताभ जी।
ऐ जिंदगी गले लगा ले, हमने भी तेरे हर एक गम को गले से लगाया है... है ना।
ताज़ा प्रविष्ठियां
Fact of life!
एवरीथिंग इज प्री-रिटन’ इन लाईफ़ (जिन्दगी मे सब कुछ पह्ले से ही तय होता है)।
Everything is Pre-written in Life..
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Thursday, November 15, 2012
Wednesday, April 25, 2012
1 'बेहिसाब दर्द' दिया बोफोर्स नेः अमिताभ
आपका दुःख कोई नहीं समझ सकता, जो हालात का सामना करता है, और सहता है.,वह ही समझ सकता है. आपने और आपके परिवार ने जिस हिम्मत के साथ ये सब सहा, वह सराहनीय है. भगवान् के यहाँ देर है अंधेर नहीं है. आपके साथ बुरा करने वालों का हाल अपने इसी जिन्दगी मैं देखा ! उनका अंत केसे हुआ. और आज आप सही सलामत है.
आखिर मैं बुरे काम का बुरा नतीजा
Wednesday, November 16, 2011
1 कहां गयी भैरवी देवी?
ऐश्वर्या राय बच्चन ने एक सुंदर सी बच्ची को जन्म दिया। जिसके बाद तमाम उन कयासों पर विराम लग गया जो कि पिछले काफी समय से सुर्खियों में छाये हुए थे। कोई कह रहा था कि ऐश बेटे को जन्म देंगी तो किसी ने कहा कि ऐश जुड़वा बच्चों को जन्म देंगी।
जब से यह खबर आयी थी कि ऐश मां बनने वाली है तब से ही अफवाहों का बाजार गर्म था। लेकिन वाकई में सब अफवायें ही निकली जिनमें जरा सी भी सच्चाई नहीं थी। इन्ही बकवास दावों में एक दावा था भेजा फ्राई की अभिनेत्री और मॉडल भैरवी गोस्वामी का।
जिन्होंने तो टि्वटर पर ट्विट करके बकायदा बच्चन परिवार पर बेटे प्रेमी होने का आरोप लगाया था। अपने टि्वट में भैरवी ने लिखा था कि उन्हें उन लोगों के ऊपर बहुत गुस्सा आता है जो मीडिया और लोगों के सामने बेटी-बेटी चिल्लाते हैं और अंदर बेटे की चाहत रखते हैं। लेकिन इसमें उनकी गलती नहीं है क्योंकि वो ठेठ यूपी वाले लोग हैं जो बेटी और बेटे में बहुत फर्क समझते हैं।
क्योंकि बच्चन परिवार की ही ओर से यह खबर आयी थी कि उनकी बहू ऐश गर्भवती है। और बॉलीवुड में बच्चन परिवार ही है जिसकी जड़े यूपी के इलाहाबाद से जुड़ी हुई है। खबर यह भी थी ऐश्वर्या राय को बैंकाक के उस आईवीएफ क्लीनिक में देखा गया है जो कि बेटे के क्लीनिक के तौर पर जाना जाता है।
अब चूंकि ऐश्वर्या राय बच्चन आज एक बेटी की मम्मी बन गयी हैं। अमिताभ और अभिषेक ने इस बात की पुष्टि कर दी है, उसके बाद भैरवी गोस्वामी का कुछ अता-पता नहीं है। यह सारी बातें ये साबित करती है कि झूठी पब्लिसिटी को लिए इंसान कुछ भी कर सकता है।
अगर उसे चर्चित होना है तो किसी भी बड़ी हस्ती के नाम पर कीचड़ उछाल दो, बस उसका नाम हो जायेगा। फिलहाल भैरवी गोस्वामी के सारे तर्क बकवास साबित हुए है। अब तो शायद वो सच भी बोलेंगी तो लोग दस बार सोचेंगे कि उस पर भरोसा किया जाये या नहीं।
Saturday, November 5, 2011
0 जवानी में बिग बी इतने सारे पैसे आखिर कहां उड़ाया करते थे?
जब मैं मेडिकल कॉलेज में पढ़ता था, तब भी 300 रुपए में एक महीने का खर्च आराम से निकल जाया करता था। इसमें कॉपी-किताबें, भोजन, चाय-नाश्ता, हॉस्टल व कॉलेज की फीस के अलावा महीने भर में 8-10 फिल्में देखने का खर्च भी शामिल था। मैं 1975 के दशक के आसपास की बात कर रहा हूं।
अमिताभ का कोलकाता काल तो मेरी तुलना में लगभग 10 साल पहले का था, यानी की 1965 के दशक के आसपास का। इससे आप यह अंदाजा तो बखूबी लगा सकते हैं कि उस समय इतनी महंगाई तो नहीं थी। इस समय कोयला कंपनी में बतौर एक्जिक्युटिव के पद पर काम करने वाले दुबले-पतले, कंपनी की ड्रेस, जिसमें नॉर्मल पेंट-शर्ट, चकाचक पॉलिश किए हुए बूट, बेल्ट और गले में टाई पहनने वाले अमिताभ के लिए यह तनख्वाह बहुत ज्यादा ही थी।
'बर्ड एंड हिल्जर्स'में 470 रुपए प्रतिमाह की नौकरी छोड़ अमिताभ ने 'ब्लैकर्स' नामक कंपनी ज्वाइन कर ली थी। यहां पर अब उनकी तनख्वाह 1200 रुपए प्रतिमाह थी। इस मोटी तनख्वाह के अलावा कंपनी की ओर से उन्हें गाड़ी की सुविधा और 125 रुपए टिफिन का भत्ता भी मिला करता था।
जबकि यह जमाना इतना सस्ता था कि इतनी तनख्वाह में 5 मेडिकल छात्रों का भी गुजारा हो सकता था। लेकिन फिर भी अमिताभ के पास महीने के अंत तक खर्च के लिए पैसे नहीं बचते थे। अब सवाल यह उठता है कि आखिर अमिताभ इतने सारे पैसों का करते क्या थे?
कोलकाता में बिताए अपने 5 वष्रो के दौरान अमिताभ ने माता-पिता को अपनी कमाई से एक रुपया भी कभी नहीं भेजा। अब अगर एक अकेला व्यक्ति इतने सारे पैसे एक महीने में ही खत्म कर दे तो उस पर गलत शंका तो होगी ही न!
अगर आप भी कुछ गलत सोच रहे हैं तो आप बिल्कुल सही हैं..!
अमिताभ प्रतिदिन कितनी सिगरेट फूंक दिया करते थे?
इस दौरान अमिताभ को दो चीजों की बहुत बुरी लत लग चुकी थी.. शराब और सिगरेट। आपको जानकर अत्यधिक दुख तो तब होगा जब आप इनकी मात्रा के बारे में सुनेंगे।
अमिताभ रोज लगभग 100 सिगरेट पी जाया करते थे। सोना, नहाना, खाना और नौकरी करना.. इन सभी कामों के बाद भी सिगरेट फूंकने के लिए प्रतिदिन 360 मिनट उन्हें मिला करते थे। इसमें माचिस और लाइटर का तो सवाल ही नहीं उठता.. 'यस'। 'अमिताभ वाज अ चेन-स्मोकर'। उनकी हरेक नई सिगरेट पुरानी सिगरेट के अंगारों से ही आग पकड़ा करती थी।
बच्चन ने शराब पीने में भी कई रिकार्ड बना डाले थे
अब बात करते हैं शराब की। 'मधुशाला' के रचियता कवि बच्चनजी के इस पुत्र ने शराब पीने के लगभग सारे रिकार्ड अपने नाम कर लिए थे। अमिताभ एक दिन में स्कॉच व्हिस्की की 2 बोतल गटगटा जाया करते थे। वैसे भी अधिक शराब पीने वालों की आंखें पूरी सच्चई अपने-आप बयां कर देती हैं। आमतौर पर चार-पांच दोस्तों के साथ दो-तीन घंटों की महफिल में शराब की एक बोतल तो यूं ही खत्म हो जाती है (यह मेरा अंदाजा है)। लेकिन यहां तो यह व्यक्ति एक दिन में दो बोतलें खाली कर दिया करता था।
इतनी शराब पीने के पीछे दो अलग-अलग कारण थे। इसमें से एक था शराब पीने की क्षमता पहचानने का। अमिताभ अपने दोस्तों से अक्सर शर्त लगाया करते थे..'स्कॉच व्हिस्की की एक पूरी बोतल एक सांस में पी जाने की'। पैग बनाने की तो बात ही नहीं थी। न पानी और न उसमें सोडा..बोतल का मुंह सीधे मुंह से लगाना और एक बार में पूरी बोतल खाली कर देना। (स्कॉच व्हिस्की में मौजूद अल्कोहल की सांद्रता देखें तो कहा जा सकता है कि इतनी तेज शराब पीने वाले व्यक्ति के शरीर की अंतरत्वचा का क्या हाल होता होगा? लीवर का तो नाश ही हो जाए.)
लेकिन यहां बात सिर्फ इस तरह व्हिस्की पीने की ही नहीं थी। शर्त में शामिल सबसे खतरनाक बात तो दिमागी और शारीरिक संतुलन बरकरार रखने की थी। शर्त यह भी थी कि महफिल का स्थान सातवीं मंजिल पर स्थित किसी दोस्त का फ्लैट। इस फ्लैट की खिड़की, जिसके बीच ग्रिल न हो, और इसके ठीक बीचों-बीच शरीर को बिना किसी सपोर्ट दिए बिना बैठकर पूरी बोतल एक बार में खाली करने की थी।
बोतल जब मुंह से लगाकर पी जाए तो सिर का हिस्सा तो पीछे की तरफ हो जाता है लेकिन बाकी शरीर का आगे की तरफ हो जाता है। यानी की ऐसा करते समय पैर से लेकर सीने तक का पूरा हिस्सा खिड़की से बाहर की ओर दिखाई देता। (पाठकों से मेरा निवेदन है कि वे कभी भी इस तरह का प्रयास न करें।) शरीर को किसी भी वस्तु का सहारा दिए बिना इतनी शराब पीने से रक्त और दिमाग की कोशिकाएं पूरी तरह से झन्ना जाती हैं। अंदाजा लगाइए कि इस स्थिति में अगर शरीर का जरा सा भी संतुलन बिगड़ता तो सीधे सातवें माले से नीचे आ जाते..।
अमिताभ के दोस्त उनसे कभी जीत नहीं पाए
इस तरह दोस्तों के साथ न जाने कितनी बार शर्त लगाई गई, लेकिन अमिताभ के दोस्त उनसे कभी भी जीत नहीं सके। इसके अलावा बियर पीने की भी एक अलग तरह की ही शर्त थी। सभी दोस्तों के बीच बियर का सिर्फ एक ही मग रखा जाता था। शुरुआत किसी एक से होती थी। जब पहला व्यक्ति मग खाली करता तो दूसरे का नंबर आता...
Source: courtesy शरद ठाकर
Tuesday, November 1, 2011
1 जब इंदिरा गांधी के एक फोन से बिग बी के बॉस के छूट गए पसीने!
हिंदी सिनेमा की जानकारी रखने वालों को 'विक्टर बनर्जी' की कई फिल्में याद होंगी। हालांकि उनकी फिल्मों की संख्या ज्यादा नहीं है लेकिन उनका अभिनय इन फिल्मों में इतना जबर्दस्त रहा कि लोग आज भी उसकी सराहना करते हैं। इसी तरह की एक फिल्म 'जोगर्स पार्क' जिसने दर्शकों से भरपूर प्रशंसा बटोरी थी, इस फिल्म के नायक विक्टर बनर्जी ही थे।
'नि:शब्द' और 'चीनी कम' जैसी फिल्में शायद अमिताभ के मन में धीरे-धीरे पनपती रहीं इस प्रतिस्पर्धा और जलन का ही परिणाम हो सकती हैं। क्योंकि इन तीनों फिल्मों की कथावस्तु लगभग एक सी ही है। बड़ी उम्र का पुरुष अपनी बेटी की उम्र की लकड़ी से प्रेम कर बैठता है... कुछ यही बात इन तीनों फिल्मों में कॉमन थी। मतलब जो काम विक्टर बड़ी आसानी से कर सकता था, तो अमिताभ क्यों नहीं...? 'एमच्योर्स' नाटक कंपनी में अमिताभ की मुलाकात कई अन्य मित्रों से भी हुई, जिसमें मोहन थडानी, प्रभात बनर्जी, गोपाल और ज्योति सबरवाल जैसे नाम शामिल हैं। इसके अलावा अमिताभ को इसी बीच कई महिला-मित्र भी मिलीं, लेकिन इनका आंकड़ा जरा ऊंचा है। इन्हीं महिला मित्रों ने अमिताभ की कोलकाता की जिंदगी गुलाबी बना दी थी।
जवानी में अमिताभ काफी दुबले थे। इसके अलावा अपनी लंबाई के कारण वे और भी दुबले दिखाई देते थे। उनका चेहरा भी ज्यादा आकर्षक नहीं था। लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि ऐसा होते हुए भी उन पर लड़कियां जान छिड़का करतीं थीं।
इसका एक कारण अमिताभ की खुशमिजाजी और संगीत के प्रति उनका अटूट प्रेम भी था। वे कोलकाता में दिल्ली से एक ढोलक और एक सितार भी ले आए थे। प्रतिदिन शाम को दोस्तों की महफिल जमा करती थी, जिसमें अमिताभ ढोलक की थाप पर उत्तर भारत के लोकगीत गाया करते थे। नाच-गाने के साथ महफिल में चुटकुलों, कहानियों का भी जमकर दौर चलता था। इस महफिल में अमिताभ का सबसे प्रिय लोकगीत था...'मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है।'
वर्षों बाद फिल्म 'लावारिस' में यही लोकगीत अमिताभ ने खुद गाया था, जिस पर पूरा देश झूमा और आज भी झूम उठता है।
वर्षों बाद फिल्म 'लावारिस' में यही लोकगीत अमिताभ ने खुद गाया था, जिस पर पूरा देश झूमा और आज भी झूम उठता है।
'बर्ड एंड हिल्जर्स' कंपनी से इस्तीफा देने के बाद अमिताभ ने कोयले की दूसरी कंपनी ज्वाइन कर ली थी। इस कंपनी का नाम था 'ब्लेक्र्स'। कंपनी के बॉस 'बोनी श्रीकांत' थे। यहां अमिताभ का पद जुनियर एक्जिक्युटिव का था। इस कंपनी में अमिताभ ने लगभग साढ़े तीन वर्ष नौकरी की।
ये साढ़े तीन वर्ष भी अमिताभ ने पूरी मौज-मस्ती के साथ गुजारे। दोस्तों के साथ धमाल करते हुए सिगरेट के कस खींचते हुए और शराब के घूंट उतारते हुए ही यह समय गुजरा। लेकिन इस बीच एक घटना ऐसी भी हुई, जो अमिताभ की विनम्रता, निराभिमान और सरलता को दर्शाती है...
अमिताभ जब छोटे थे, तबसे उनके बाएं कंधे पर गांठ की समस्या उभर आई थी। दिल्ली में इसका एक ऑपरेशन भी कराया गया था। लेकिन कोलकाता में अमिताभ की यह समस्या फिर से उभर आई। इस समय उन्हें पहले की अपेक्षा ज्यादा दर्द का सामना करना पड़ा।
अमिताभ ने अपने बॉस बोनी श्रीकांत को पत्र लिखकर निवेदन किया...'सर! ज्यादा दर्द की वजह से लगता है मुझे डॉक्टर से मिलना पड़ेगा। मैंने सुना है कि कर्मचारी के इलाज के लिए कंपनी खर्चा देती है...!'
'हां, कंपनी छोटे-मोटे खर्चों की भरपाई तो करती है लेकिन अगर ज्यादा खर्च हो तो उसका खर्च कर्मचारी को खुद ही उठाना पड़ता है। बॉस ने जवाब दिया।'
अमिताभ ने इलाज कराना शुरू कर दिया। लेकिन राहत नहीं मिली, बल्कि धीरे-धीरे दर्द और बढ़ता चला गया। उन्होंने फिर से बॉस से मुलाकात की...'सर, मुझे लगता है कि मुझे किसी स्पेशलिस्ट से मिलना पड़ेगा।'
यह बात सुनकर बॉस का मूंड तो कुछ बिगड़ा लेकिन उन्होंने यह भी महसूस किया कि स्थिति वाकई गंभीर है तो अमिताभ को हां कह दिया और डॉक्टर की फीस कंपनी की तरफ से दिलाने की सहमति दे दी।
कुछ दिनों बाद फिर से वही दृश्य...'सर, मुझे इससे भी बिल्कुल आराम नहीं मिला है, लगता है अब मुझे किसी दूसरे डॉक्टर से मिलना होगा।'
इस बार भी बॉस बोनी श्रीकांत ने मंजूरी दे दी। कुछ दिनों बाद अमिताभ फिर से बॉस के ऑफिस में दाखिल हुए और कहा...'सर, डॉक्टर ने मुझे ऑपरेशन की सलाह दी है। इसके लिए मुझे चार-पांच दिन का अवकाश और ऑपरेशन का खर्च की आवश्यकता होगी।'
लेकिन अब बॉस के दिमाग की कमान छूट गई... 'लुक, अमित! इनफ इज इनफ नाऊ! तुम्हें पता है कि यह कंपनी इतनी अमीर नहीं कि इतने खर्च की पूर्ति कर सके। तुम किसी स्पेशलिस्ट की जगह किसी साधारण डॉक्टर की सलाह क्यों नहीं लेते?'
अमिताभ ने जवाब दिया...'सर, मैं तो फुटपाथिया डॉक्टर के पास भी जाने को तैयार हूं। लेकिन मेरी 'आंटी' चाहती हैं कि मैं किसी स्पेशलिस्ट से ही यह इलाज कराऊं।'
बॉस ने अमित को काफी समझाया, लेकिन सब व्यर्थ! अमित इसी जिद पर अड़े रहे कि 'आंटी' चाहती हैं कि किसी स्पेशलिस्ट से ही इलाज कराया जाए। अगर मेरे इलाज के लिए कंपनी के पास पैसे नहीं तो मेरे पास भी क्या है... मैं बिना ऑपरेशन के ही काम चला लूंगा।
बॉस अमिताभ के सामने तो कुछ नहीं बोले... लेकिन झुंझलाते हुए मन ही मन यह जरूर कहा होगा..'भाड़ में जाओ तुम और भाड़ में जाएं तुम्हारी 'आंटी'। अगर आंटी स्पेशलिस्ट से ही यह इलाज कराने की इच्छुक हैं तो वे इसका खर्च खुद ही क्यों नहीं उठा लेतीं?'
दो-चार दिन बीत गए। एक दिन अमिताभ अपनी कुर्सी पर बैठकर ऑफिस का काम कर रहे थे, तभी एक वर्दीधारी व्यक्ति उनके पास आया और एक चिट्ठी उनके हाथ में थमा दी। बॉस कांच की दीवार से यह दृश्य देख रहे थे। चिट्ठी पढऩे के बाद तुरंत ही अमिताभ ने फोन अपनी ओर खींचा और एक नंबर डायल किया। बॉस यह पूरा दृश्य देख रहे थे तो उन्होंने तुरंत ही पैरेलल लाइन पर अमिताभ की बात किससे हो रही है, सुन ली। इस समय अमिताभ 'राजभवन' में किसी महिला से बात कर रहे थे...'हां जी, आंटीजी! नमस्ते आंटीजी!'
दूसरी तरफ से आंटीजी कह रही थीं...'तुमने अभी तक ऑपरेशन नहीं करवाया? क्या... तुम्हारी कंपनी ऑपरेशन का खर्च उठाने तैयार नहीं है? अगर ऐसा है तो छोड़ो ऐसी कंपनी को... गेट योरसेल्फ ऑपरेटेड एज अर्ली एक पॉसिबल, डॉन्ट वरी अबाउट द एक्सपेंसिज, आई शेल बेअर इट।'
यह बात सुनते ही अमिताभ के बॉस बोनी श्रीकांत के पसीने छूट गए और वे अमिताभ के पास आकर उनसे पूछने लगे...'हू इज दिस आंटी?' तुम अब तक कई बार अपनी 'आंटी' का जिक्र कर चुके हो, लेकिन तुमने अभी तक यह नहीं बताया कि आखिर तुम्हारी यह 'आंटी' कौन हैं?
अमिताभ ने नम्रतापूर्वक जवाब दिया...'सर, ये श्रीमती इंदिरा गांधी हैं, प्राइम मिनिस्टर ऑफ इंडिया'।अमिताभ ने ये शब्द इतनी शांति और भोलेपन से कहे, जैसे कि वे किसी आम महिला के बारे में बता रहे हों। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि यह सुनकर बोनी श्रीकांत की हालत कैसी हो गई होगी। मसलन 'काटो तो खून नहीं जैसी,' है न!
इतने वर्षों बाद भी यह बॉस कुबूल करते हैं कि किसी भी मनुष्य के सच्चे संस्कार उसकी कसौटी पर परखे जा सकते हैं। यह घटना कई दिनों तक चलती रही, लेकिन उसके पहले और न बाद भी अमित के व्यवहार में कोई परिवर्तन आया। वे पूरे समय सहज, विनम्र और शिस्तबद्ध रहे। प्रधानमंत्री के परिवार से उनके इतने अच्छे रिश्ते हैं, प्रधानमंत्री के पुत्र (राजीव गांधी) खुद उनके जिगरी दोस्त हैं... लेकिन अमिताभ ने इस दमदार रिश्ते के बल पर किसी भी तरह का फायदा उठाने की जरा भी कोशिश नहीं की।
किसी ने सच ही कहा है...'ग्रेट पीपुल डू नॉट बिकम ग्रेट विदाउट एनी रीजन'। अमिताभ 'बिग-बी' इसीलिए बन सके कि जब वे 'स्मॉल-बी' थे, उस समय भी उनमें 'बिग' बनने के गुण और संस्कार शामिल थे।
Courtesy शरद ठाकर
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