हिंदी सिनेमा की जानकारी रखने वालों को 'विक्टर बनर्जी' की कई फिल्में याद होंगी। हालांकि उनकी फिल्मों की संख्या ज्यादा नहीं है लेकिन उनका अभिनय इन फिल्मों में इतना जबर्दस्त रहा कि लोग आज भी उसकी सराहना करते हैं। इसी तरह की एक फिल्म 'जोगर्स पार्क' जिसने दर्शकों से भरपूर प्रशंसा बटोरी थी, इस फिल्म के नायक विक्टर बनर्जी ही थे।
'नि:शब्द' और 'चीनी कम' जैसी फिल्में शायद अमिताभ के मन में धीरे-धीरे पनपती रहीं इस प्रतिस्पर्धा और जलन का ही परिणाम हो सकती हैं। क्योंकि इन तीनों फिल्मों की कथावस्तु लगभग एक सी ही है। बड़ी उम्र का पुरुष अपनी बेटी की उम्र की लकड़ी से प्रेम कर बैठता है... कुछ यही बात इन तीनों फिल्मों में कॉमन थी। मतलब जो काम विक्टर बड़ी आसानी से कर सकता था, तो अमिताभ क्यों नहीं...? 'एमच्योर्स' नाटक कंपनी में अमिताभ की मुलाकात कई अन्य मित्रों से भी हुई, जिसमें मोहन थडानी, प्रभात बनर्जी, गोपाल और ज्योति सबरवाल जैसे नाम शामिल हैं। इसके अलावा अमिताभ को इसी बीच कई महिला-मित्र भी मिलीं, लेकिन इनका आंकड़ा जरा ऊंचा है। इन्हीं महिला मित्रों ने अमिताभ की कोलकाता की जिंदगी गुलाबी बना दी थी।
जवानी में अमिताभ काफी दुबले थे। इसके अलावा अपनी लंबाई के कारण वे और भी दुबले दिखाई देते थे। उनका चेहरा भी ज्यादा आकर्षक नहीं था। लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि ऐसा होते हुए भी उन पर लड़कियां जान छिड़का करतीं थीं।
इसका एक कारण अमिताभ की खुशमिजाजी और संगीत के प्रति उनका अटूट प्रेम भी था। वे कोलकाता में दिल्ली से एक ढोलक और एक सितार भी ले आए थे। प्रतिदिन शाम को दोस्तों की महफिल जमा करती थी, जिसमें अमिताभ ढोलक की थाप पर उत्तर भारत के लोकगीत गाया करते थे। नाच-गाने के साथ महफिल में चुटकुलों, कहानियों का भी जमकर दौर चलता था। इस महफिल में अमिताभ का सबसे प्रिय लोकगीत था...'मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है।'
वर्षों बाद फिल्म 'लावारिस' में यही लोकगीत अमिताभ ने खुद गाया था, जिस पर पूरा देश झूमा और आज भी झूम उठता है।
वर्षों बाद फिल्म 'लावारिस' में यही लोकगीत अमिताभ ने खुद गाया था, जिस पर पूरा देश झूमा और आज भी झूम उठता है।
'बर्ड एंड हिल्जर्स' कंपनी से इस्तीफा देने के बाद अमिताभ ने कोयले की दूसरी कंपनी ज्वाइन कर ली थी। इस कंपनी का नाम था 'ब्लेक्र्स'। कंपनी के बॉस 'बोनी श्रीकांत' थे। यहां अमिताभ का पद जुनियर एक्जिक्युटिव का था। इस कंपनी में अमिताभ ने लगभग साढ़े तीन वर्ष नौकरी की।
ये साढ़े तीन वर्ष भी अमिताभ ने पूरी मौज-मस्ती के साथ गुजारे। दोस्तों के साथ धमाल करते हुए सिगरेट के कस खींचते हुए और शराब के घूंट उतारते हुए ही यह समय गुजरा। लेकिन इस बीच एक घटना ऐसी भी हुई, जो अमिताभ की विनम्रता, निराभिमान और सरलता को दर्शाती है...
अमिताभ जब छोटे थे, तबसे उनके बाएं कंधे पर गांठ की समस्या उभर आई थी। दिल्ली में इसका एक ऑपरेशन भी कराया गया था। लेकिन कोलकाता में अमिताभ की यह समस्या फिर से उभर आई। इस समय उन्हें पहले की अपेक्षा ज्यादा दर्द का सामना करना पड़ा।
अमिताभ ने अपने बॉस बोनी श्रीकांत को पत्र लिखकर निवेदन किया...'सर! ज्यादा दर्द की वजह से लगता है मुझे डॉक्टर से मिलना पड़ेगा। मैंने सुना है कि कर्मचारी के इलाज के लिए कंपनी खर्चा देती है...!'
'हां, कंपनी छोटे-मोटे खर्चों की भरपाई तो करती है लेकिन अगर ज्यादा खर्च हो तो उसका खर्च कर्मचारी को खुद ही उठाना पड़ता है। बॉस ने जवाब दिया।'
अमिताभ ने इलाज कराना शुरू कर दिया। लेकिन राहत नहीं मिली, बल्कि धीरे-धीरे दर्द और बढ़ता चला गया। उन्होंने फिर से बॉस से मुलाकात की...'सर, मुझे लगता है कि मुझे किसी स्पेशलिस्ट से मिलना पड़ेगा।'
यह बात सुनकर बॉस का मूंड तो कुछ बिगड़ा लेकिन उन्होंने यह भी महसूस किया कि स्थिति वाकई गंभीर है तो अमिताभ को हां कह दिया और डॉक्टर की फीस कंपनी की तरफ से दिलाने की सहमति दे दी।
कुछ दिनों बाद फिर से वही दृश्य...'सर, मुझे इससे भी बिल्कुल आराम नहीं मिला है, लगता है अब मुझे किसी दूसरे डॉक्टर से मिलना होगा।'
इस बार भी बॉस बोनी श्रीकांत ने मंजूरी दे दी। कुछ दिनों बाद अमिताभ फिर से बॉस के ऑफिस में दाखिल हुए और कहा...'सर, डॉक्टर ने मुझे ऑपरेशन की सलाह दी है। इसके लिए मुझे चार-पांच दिन का अवकाश और ऑपरेशन का खर्च की आवश्यकता होगी।'
लेकिन अब बॉस के दिमाग की कमान छूट गई... 'लुक, अमित! इनफ इज इनफ नाऊ! तुम्हें पता है कि यह कंपनी इतनी अमीर नहीं कि इतने खर्च की पूर्ति कर सके। तुम किसी स्पेशलिस्ट की जगह किसी साधारण डॉक्टर की सलाह क्यों नहीं लेते?'
अमिताभ ने जवाब दिया...'सर, मैं तो फुटपाथिया डॉक्टर के पास भी जाने को तैयार हूं। लेकिन मेरी 'आंटी' चाहती हैं कि मैं किसी स्पेशलिस्ट से ही यह इलाज कराऊं।'
बॉस ने अमित को काफी समझाया, लेकिन सब व्यर्थ! अमित इसी जिद पर अड़े रहे कि 'आंटी' चाहती हैं कि किसी स्पेशलिस्ट से ही इलाज कराया जाए। अगर मेरे इलाज के लिए कंपनी के पास पैसे नहीं तो मेरे पास भी क्या है... मैं बिना ऑपरेशन के ही काम चला लूंगा।
बॉस अमिताभ के सामने तो कुछ नहीं बोले... लेकिन झुंझलाते हुए मन ही मन यह जरूर कहा होगा..'भाड़ में जाओ तुम और भाड़ में जाएं तुम्हारी 'आंटी'। अगर आंटी स्पेशलिस्ट से ही यह इलाज कराने की इच्छुक हैं तो वे इसका खर्च खुद ही क्यों नहीं उठा लेतीं?'
दो-चार दिन बीत गए। एक दिन अमिताभ अपनी कुर्सी पर बैठकर ऑफिस का काम कर रहे थे, तभी एक वर्दीधारी व्यक्ति उनके पास आया और एक चिट्ठी उनके हाथ में थमा दी। बॉस कांच की दीवार से यह दृश्य देख रहे थे। चिट्ठी पढऩे के बाद तुरंत ही अमिताभ ने फोन अपनी ओर खींचा और एक नंबर डायल किया। बॉस यह पूरा दृश्य देख रहे थे तो उन्होंने तुरंत ही पैरेलल लाइन पर अमिताभ की बात किससे हो रही है, सुन ली। इस समय अमिताभ 'राजभवन' में किसी महिला से बात कर रहे थे...'हां जी, आंटीजी! नमस्ते आंटीजी!'
दूसरी तरफ से आंटीजी कह रही थीं...'तुमने अभी तक ऑपरेशन नहीं करवाया? क्या... तुम्हारी कंपनी ऑपरेशन का खर्च उठाने तैयार नहीं है? अगर ऐसा है तो छोड़ो ऐसी कंपनी को... गेट योरसेल्फ ऑपरेटेड एज अर्ली एक पॉसिबल, डॉन्ट वरी अबाउट द एक्सपेंसिज, आई शेल बेअर इट।'
यह बात सुनते ही अमिताभ के बॉस बोनी श्रीकांत के पसीने छूट गए और वे अमिताभ के पास आकर उनसे पूछने लगे...'हू इज दिस आंटी?' तुम अब तक कई बार अपनी 'आंटी' का जिक्र कर चुके हो, लेकिन तुमने अभी तक यह नहीं बताया कि आखिर तुम्हारी यह 'आंटी' कौन हैं?
अमिताभ ने नम्रतापूर्वक जवाब दिया...'सर, ये श्रीमती इंदिरा गांधी हैं, प्राइम मिनिस्टर ऑफ इंडिया'।अमिताभ ने ये शब्द इतनी शांति और भोलेपन से कहे, जैसे कि वे किसी आम महिला के बारे में बता रहे हों। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि यह सुनकर बोनी श्रीकांत की हालत कैसी हो गई होगी। मसलन 'काटो तो खून नहीं जैसी,' है न!
इतने वर्षों बाद भी यह बॉस कुबूल करते हैं कि किसी भी मनुष्य के सच्चे संस्कार उसकी कसौटी पर परखे जा सकते हैं। यह घटना कई दिनों तक चलती रही, लेकिन उसके पहले और न बाद भी अमित के व्यवहार में कोई परिवर्तन आया। वे पूरे समय सहज, विनम्र और शिस्तबद्ध रहे। प्रधानमंत्री के परिवार से उनके इतने अच्छे रिश्ते हैं, प्रधानमंत्री के पुत्र (राजीव गांधी) खुद उनके जिगरी दोस्त हैं... लेकिन अमिताभ ने इस दमदार रिश्ते के बल पर किसी भी तरह का फायदा उठाने की जरा भी कोशिश नहीं की।
किसी ने सच ही कहा है...'ग्रेट पीपुल डू नॉट बिकम ग्रेट विदाउट एनी रीजन'। अमिताभ 'बिग-बी' इसीलिए बन सके कि जब वे 'स्मॉल-बी' थे, उस समय भी उनमें 'बिग' बनने के गुण और संस्कार शामिल थे।
Courtesy शरद ठाकर
बहुत बेहतरीन संस्मरण पढ़वाने के लिये धन्यवाद, जिनमें गुण और संस्कार होते हैं वही आगे बढ़ पाते हैं।
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