कहाँ गए जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी और हुर्रियत के नेता, उन्हें तो शर्म आनी चाहिए। पूरा प्रदेश बाढ़ मैं डूब रहा है और आप गायब है। ऐसे नेताओं के बेवकूफ समर्थको की आंखें खुलने के लिए काफी है,
ऐ जिंदगी गले लगा ले, हमने भी तेरे हर एक गम को गले से लगाया है... है ना।
ताज़ा प्रविष्ठियां
Fact of life!
एवरीथिंग इज प्री-रिटन’ इन लाईफ़ (जिन्दगी मे सब कुछ पह्ले से ही तय होता है)।
Everything is Pre-written in Life..
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Thursday, September 11, 2014
Wednesday, January 12, 2011
0 कश्मीर में तिरंगा फहराने से किसे तकलीफ होती है?
आजादी के छह दशकों ने आखिर हमें क्या सिखाया है? हम राष्ट्र, एक जन का व्यवहार भी नहीं सीख पा रहे हैं। लोकतंत्र की अतिवादिता तो हमने सीख ली है किंतु मर्यादापूर्ण व्यवहार और आचरण हमने नहीं सीखा। वाणी संयम की बात तो जाने ही दीजिए। यूं लगता है कि देशभक्ति, देश की बात करना और कहना ही एक बोझ बन गया है। देश के हालात तो यही हैं कि कुछ भी कहिए शान से रहिए। क्या दुनिया का कोई देश इतनी सारी मुश्किलों के साथ सहजता से सांस ले सकता है। शायद नहीं, पर हम ले रहे हैं क्योंकि हमें अपने गणतंत्र पर भरोसा है। यह भरोसा भी तब टूटता दिखता है जब संवैधानिक पदों पर बैठे लोग ही अलगाववादियों की भाषा बोलने लगते हैं। बात जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर फारूख की हो रही है, जिनका कहना है कि गणतंत्र दिवस पर भाजपा श्रीनगर के लालचौक पर तिरंगा न फहराए क्योंकि इससे हिंसा भड़क सकती है। आखिर एक मुख्यमंत्री के मुंह से क्या ऐसे बयान शोभा देते हैं? अब सवाल यह उठता है कि आखिर लालचौक में तिरंगा फहराने से किसे दर्द होता है। उमर की चेतावनी है कि इस घटना से कश्मीर के हालात बिगड़ते हैं तो इसके लिए भाजपा ही जिम्मेदार होगी। निश्चित ही एक कमजोर शासक ही ऐसे बयान दे सकता है।
अपने विवादित बयानों को लेकर उमर की काफी आलोचना हो चुकी है किंतु लगता है कि इससे उन्होंने कोई सबक नहीं सीखा है। वे लगातार जो कह और कर रहे हैं उससे साफ लगता है कि न तो उनमें राजनीतिक समझ है न ही प्रशासनिक काबलियत। कश्मीर के शासक को कितना जिम्मेदार होना चाहिए इसका अंदाजा भी उन्हें नहीं है। आखिर मुख्यमंत्री ही अगर ऐसे भड़काऊ बयान देगा तो आगे क्या बचता है। सही मायने में उमर अब अलगाववादियों की ही भाषा बोलने लगे हैं। एक आजाद देश में कोई भी नागरिक या समूह अगर तिरंगा फहराना चाहता है तो उसे रोका नहीं जाना चाहिए। देश के भीतर अगर इस तरह की प्रतिक्रियाएं एक संवैधानिक पद पर बैठे लोग कर रहे हैं तो हालात को समझा जा सकता है। उमर भारत में कश्मीर के विलय को लेकर एक आपत्तिजनक टिप्पणी कर चुके हैं, ऐसे व्यक्ति से क्या उम्मीद की जा सकती है?
देश के भीतर तिरंगा फहराना आखिर पाप कैसे हो सकता है? देश के राजनीतिक दल भी भारतीय जनता युवा मोर्चा के इस आयोजन में राजनीति देखते हैं तो यह दुखद ही है। आखिर तिरंगा अगर किसी राजनीति का हिस्सा है तो वह देशभक्ति की ही राजनीति है। किंतु इस देश में तमाम लोगों को भारत माता की जय और वंदेमातरम की गूंज से भी दर्द होता है, शायद उन्हीं लोगों को तिरंगे से भी परेशानी है। आखिर क्या हालात है कि हम अपने राष्ट्रीय पर्वों पर ध्वजारोहण भी अलगाववादियों से पूछकर करेंगे। वे नाराज हो जाएंगे इसलिए प्लीज आज तिरंगा न फहराएं। क्या बेहूदे तर्क हैं कि बड़ी मुश्किल से घाटी में शांति आई है। चार लाख कश्मीरी पंडितों को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा, अनेक उदारवादी मुस्लिम नेताओं की हत्याएं की गयीं, अभी हाल तक सेना और पुलिस पर पत्थर बरसाए गए और आज भी सेना को वापिस भेजने के सुनियोजित षडयंत्र चल रहे हैं। आप इसे शांति कहते हैं तो कहिए, पर इससे चिंताजनक हालात क्या हो सकते हैं? अगर तिरंगा फहराने से किसी इलाके में अशांति आती है तो तय मानिए वे कौन से लोग हैं और उनकी पहचान क्या है।
पाकिस्तान के झंडे और "गो इंडियंस" का बैनर लेकर प्रर्दशन करने वालों को खुश करने के लिए हमारी सरकार सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव करने का विचार करने लगती है। सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव की गंदी राजनीति से हमारे सुरक्षाबलों के हाथ बंध जाएंगे। हमारी सरकार इस माध्यम से जो करने जा रही है वह देश की एकता-अखंडता को छिन्न-भिन्न करने की एक गहरी साजिश है। जिस देश की राजनीति के हाथ अफजल गुरू की फांसी की फाइलों को छूते हाथ कांपते हों, वह न जाने किस दबाव में देश की सुरक्षा से समझौता करने जा रही है। यह बदलाव होगा हमारे जवानों की लाशों पर। इस बदलाव के तहत सीमा पर अथवा अन्य अशांत क्षेत्रों में डटी फौजें किसी को गिरफ्तार नहीं कर सकेंगी। दंगों के हालात में उन पर गोली नहीं चला सकेंगी। जी हां, फौजियों को जनता मारेगी, जैसा कि सोपोर में हम सबने देखा। घाटी में पाकिस्तानी मुद्रा चलाने की कोशिशें भी इसी देशतोड़क राजनीति का हिस्सा है। यह गंदा खेल, अपमान और आतंकवाद को इतना खुला संरक्षण देख कर कोई अगर चुप रह सकता है तो वह भारत की महान सरकार ही हो सकती है।
आप कश्मीरी हिंदुओं को लौटाने की बात न करें, हां सेना को वापस बुला लें। क्या हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जिसकी घटिया राजनीति ने हम भारत के लोगों को इतना लाचार और बेचारा बना दिया है कि हम वोट की राजनीति से आगे की न सोच पाएं? क्या हमारी सरकारों और वोट के लालची राजनीतिक दलों ने यह तय कर लिया है कि देश और उसकी जनता का कितना भी अपमान होता रहे, हमारे सुरक्षा बल रोज आतंकवादियों के गोलियां का शिकार होकर तिरंगें में लपेटे जाते रहें और हम उनकी लाशों को सलामी देते रहें-पर इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ेगा। किंतु अफसोस इस बात का है कि गणतंत्र को चलाने और राजधर्म को निभाने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर है वे वोट बैंक से आगे की सोच नहीं पाते। वे देशद्रोह को भी जायज मानते हैं और उनके लिए अभिव्यक्ति के नाम पर कोई भी कुछ भी कहने और बकने को आजाद है।
कश्मीर में पाकिस्तानी झंडे लेकर घूमने से शांति और तिरंगा फहराने से अशांति होती है – शायद छह दशकों में यही भारत हमने बनाया है। ऐसे में क्या नहीं लगता कि देशभक्ति भी अब एक बोझ बन गयी है, शायद इसीलिए हमारे संविधान की शपथ लेकर बैठे नेता भी इसे उतार फेंकना चाहते हैं। कश्मीर का संकट दरअसल उसी देशतोड़क द्विराष्ट्रवाद की मानसिकता से उपजा है जिसके चलते भारत का विभाजन हुआ। पाकिस्तान और द्विराष्ट्रवाद की समर्थक ताकतें यह कैसे सह सकती हैं कि कोई भी मुस्लिम बहुल इलाका हिंदुस्तान के साथ रहे। किंतु भारत को यह मानना होगा कि कश्मीर में उसकी पराजय आखिरी पराजय नहीं होगी। इससे हिदुस्तान में रहने वाले हिंदू-मुस्लिम रिश्तों की नींव हिल जाएगी और सामाजिक एकता का ताना-बाना खंड- खंड हो जाएगा। इसलिए भारत को किसी भी तरह यह लड़ाई जीतनी है। उन लोगों को जो देश के संविधान को नहीं मानते, देश के कानून को नहीं मानते उनके खिलाफ हमें किसी भी सीमा तक जाना पड़े तो जाना चाहिए।
Courtesy संजय द्विवेदी माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय B4M
Wednesday, October 27, 2010
0 लज्जा आती है ऐसे देश पर!
लज्जा आती है ऐसे देश पर जहां न्याय की मांग करने वालों को जेल में ठूंसने की धमकी दी जाती है जबकि धर्म के नाम पर हत्याएं करनेवाले, घोटालेबाज व दुष्कर्मी खुलेआम घूमते हैं- अरुंधती
इस बेचारी को इस देश में शर्म आती है, फिर भी इसी देश में है, क्यों पाकिस्तान नहीं चली जाति, खाते यहाँ का और गुण गाते है दुसरो का, ये हमारी राजनेतिक व्यवस्था की कमी है!
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0 manish tiwari
Shame on Manish Tiwari (congress speaker), the way he talk , about Arundhati Rai on kashmir issue.
0 सैयद अली शाह गिलानी और लेखिका अरुंधति राय के खिलाफ कार्रवाई से हिचक रहा गृह मंत्रालय!
सैयद अली शाह गिलानी और लेखिका अरुंधति राय के खिलाफ कार्रवाई से हिचक रहा है, गृह मंत्रालय! सरकार कि सरकार कि ऐसी क्या मजबूरी है? ओर हमारे समाचार पत्र उसकी हँसते हुए (दांत निकलते हुए तस्वीर अखबार में छापते है (वो किसका मजाक उड़ा रहे है, हमारा या सरकार का?
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0 अरुंधति रॉय नहीं -एक व्यक्ति जो अपना दिमाग खो दे!
कश्मीर भारत का अभिन्न अंग नहीं है कहने वाली अरुंधति राय का विवादों से पुराना नाता रहा है। पता नही कयोँ भारत सरकार ऎसे लोगों से सख्ती से नही निपटती, सरकारोँ की एसी क्या मजबुरी है ?
एक व्यक्ति जो अपना दिमाग खो दे - उसे आप क्या कहेगे।'
यह पहली बार नहीं है जब अरुंधति रॉय कश्मीर पर दिए अपने बयान को लेकर विवादों में हैं। इससे पहले कश्मीर को पाकिस्तान को देने संबंधी बयान पर अरुंधति रॉय पर जूता भी फेंका जा चुका है।
गौरतलब है कि 13 फरवरी को दिल्ली यूनिवर्सिटी में एक वार्ता के दौरान युवा (यूथ यूनिटी फॉर वाइब्रेंट एक्शन) के एक सदस्य ने लेखिका पर पाकिस्तान का समर्थन करने के विरोध में जूता फेंक दिया था। बाद में एक नीलामी में यह जूता एक लाख रुपए में बिका था।
विवादों की देवी कहिए
कश्मीर भारत का अभिन्न अंग नहीं है कहने वाली अरुंधति राय का विवादों से पुराना नाता रहा है।
अंग्रेजी की इस लेखिका को अपने उपन्यास 'द गॉड ऑफ द स्माल थिंग्स' से चर्चा मिली और इस पर बुकर प्राइज जीतने के बाद वो जानी पहचानी हस्ती हो गई। इससे पहले रॉय ने कुछ फिल्मों के लिए स्क्रीन प्ले भी लिखा था। लेकिन द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स के प्रकाशन से पहले अरुंधति राय की जिंदगी में आर्थिक स्थायित्व नहीं था। उन्होंने इस बीच तरह तरह के काम किए, यहां तक की दिल्ली के फाइव स्टार होटल्स में उन्होंने एयरोबिक्स की क्लासेज भी लीं।
नक्सलियों को समर्थन
बस्तर में सीआरपीएफ जवानों पर हमले के बाद अरूंधति ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया। जिसमें उन्होंने नक्सलवाद का सर्मथन करते हुए एक पत्रिका में लेख लिखा। देश की मुख्यधारा की पार्टियों ने अरुंधति राय के लेख की आलोचना की।
अलगाववाद का समर्थन
अभी हाल के विवादों से पहले भी रॉय तमाम मंचों पर कश्मीर के बारे में ऐसे विचार व्यक्त करती रही हैं जो कथित तौर पर भारत सरकार के विचार के खिलाफ हैं। इससे पहले भी उन्होंने अलगाववादियों की आजादी की मांग का सर्मथन किया है।
बैंडिट क्वीन
डाकू फूलन देवी के जीवन पर बनी फिल्म बैंडिट क्वीन की अरुंधति ने जोरदार आलोचना की थी। फेस्टिवल सर्किट में सराही और तमाम समारोहों में पुरस्कृत इस फिल्म की आलोचना करते हुए रॉय ने इस 'द गेट्र इंडियन रेप ट्रिक' कहा था। डायरेक्टर शेखर कपूर के रेप की सीन्स को इन एक्ट करने को लेकर उन्होंने आलोचना की थी और कहा था कि बगैर फूलन की अनुमति लिए उन्होंन फूलन जैसी महिला के किरदार को गलत ढंग से परदे पर पेश किया
अफजल की फांसी
अफजल गुरू की फांसी का विरोध कर रहे तमाम मानवाधिकार संगठनों के सर्मथन में उतरी अरुंधति ने अफजल और संसद भवन पर हमले के प्रकरण में न्याय प्रकिया पर सवाल उठा दिया। उनका कहना है कि अफजल को बिना ठोस सबूतों के आधार पर फांसी की सजा दी गई थी।
द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स
अरुंधति के बेहद सफल पहले नॉवेल को लेकर ही विवाद उत्पन्न हुआ। माना जाता है कि मोटे तौर पर उपन्यास की कहानी अरुधंति राय की मां की कहानी है। वैसे अरुंधति राय को एंटी ग्लोब्लाइजेशन और अमेरिका विरोधी नीतियों का प्रवक्ता माना जाता है। लेकिन इस उपन्यास में उन्होंने केरल में लंबे समय तक चलने वाले कम्युनिस्ट शासन का मजाक उड़ाया है। द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स को बुकर मिलने के बाद केरल के तमाम कम्युनिस्ट नेताओं ने आरोप लगाया था कि कम्युनिस्टों का मजाक उड़ाने के लिए ही पश्चिमी देशों ने इस किताब को बुकर पुरस्कार दिया है।
सरदार सरोवर प्रोजेक्ट और कोर्ट की अवमानना
द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स के बाद लेखिका ने फिक्शन से हटकर राजनीतिक समस्याओं पर अपने लेखन को केंद्रित कर लिया। वह उदारीकरण, भारत की परमाणु नीति और विकास की परियोजनाओं की जोरदार मुखालफत करती रही।
मेधा पाटेकर के साथ मिलकर उन्होंने नर्मदा बचाओ आंदोलन में शिरकत की और इस मामले में उन्होंने अदालत के आदेशों की आलोचना की। सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के आरोप में प्रतीकात्मक रूप से रॉय को एक दिन की जेल और 2500 रू का जुर्माना देना पड़ा था। इसको लेकर देश के जाने माने इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने उनकी जोरदार आलोचना की थी और अरूंधति रॉय और रामचंद्र गुहा के बीच इंटीलेक्चुअल सर्किल में जोरदार बहस चली थी। प्रसिद्ध स्तंभकार तवलीन सिंह ने भी उनकी आलोचना की थी।
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Tuesday, August 3, 2010
0 60 साल गणतंत्र के? आज भी घर से बेघर कश्मीरी हिन्दू
भारत अपना 60वां गणतंत्र दिवस मनाने जा रहा है. लेकिन विडम्बना है कि कश्मीर के अल्पसंख्यक हिन्दू यानी कश्मीरी पण्डितों के मानवाधिकारों की बात करने वाले कुछ ही लोग हैं. अधिसंख्य कश्मीरी हिन्दू नागरिक आज भी तम्बुओं में जीवन बीताने को मजबूर हैं.
चाहे धर्म के नाम पर हो या राजनीति के नाम पर, आज़ादी के नाम पर हो या हक़ के नाम पर, आतंक का न कोई दीन होता है न धर्म, न विवेक होता है न ईमान. यह सच है कि धर्म के नाम आतंकवाद जरूर फैलाया जा रहा है. परंतु ताकत हासिल करने की इस अंधाधुंध दौड़ में कुचल के रह जाते हैं मानवता, संवेदना और भाईचारा . भारत में आतंकवाद का नाम आये तो मन में 'कश्मीर' ज़रूर आता है.
1990 से सीमापार की ताकतों की मदद से धार्मिक कट्टरपंथ और चरमपंथ से प्रेरित हिंसा के द्वारा कश्मीर की संस्कृति, सभ्यता, सांसकृतिक धरोहरों तथा 'सर्वधर्म समभाव' की परंपरा को कुचलने का यथाक्रम प्रयास किया जा रहा है. कश्मीर सेहिंदुओं का निर्मूलन आतंकवादियों तथा स्थानीय कट्टरपंथियों का एक प्रमुख मुद्दा रहा है क्योंकि हिन्दू कश्मीर को भारत से अलग किये जाने के समर्थन में नहीं है. ना ही वह ये किसी ऐसे शासन का अनुमोदन करते हैं जो कि इस्लाम का अनुकरण करने को बाध्य करता हो. सांप्रदायिकता, रूढ़िवाद तथा पृथकतावाद का विरोध करने में कश्मीरी पंडित सदा ही आगे रहे हैं. इसी कारण शांतिप्रिय तथा आधुनिक विचारों वाला यह कश्मीरी अल्पसंख्यक समुदाय आतंकवादियों का प्रमुख निशाना बना
.इतिहास:
4 जनवरी, 1990 को कश्मीर के एक स्थानीय समाचार पत्र आफ़ताब ने हिजबुल मुजाहिदीन (जो कि जमात-ए-इस्लामी द्वारा जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग कर पाकिस्तान में जोड़े जाने के लिये जिहाद शुरु करने के उद्देश्य से 1989 में बनाया गया था) द्वारा जारी एक प्रेस-विज्ञप्ति छापी जिसमें सभी हिंदुओं को कश्मीर छोड़ने के लिये कहा गया था. एक और स्थानीय समाचार पत्र अल सफा में भी यही विज्ञप्ति छपी.
आने वाले दिनों में कश्मीर की वादियों में अफरा-तफरी मच गयी. मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला की सरकार हालात पर काबू नहीं पा सकी. सड़कों पर बंदूकधारी आतंकवादी और कट्टरपंथी क़त्ल-ए-आम करते और भारत-विरोधी नारे लगाते खुले-आम घूम रहे थे. जल्द ही हिंदुओं, खासकर कश्मीरी पंडितों के मारे जाने की ख़बरों का ताँता लग गया. अमन और ख़ूबसूरती की मिसाल कश्मीर की वादियाँ जल उठीं. जगह-जगह धमाके हो रहे थे, मस्जिदों से अज़ान की जगह भड़काऊ भाषण गूंज रहे थे
4 जनवरी, 1990 को कश्मीर के एक स्थानीय समाचार पत्र आफ़ताब ने हिजबुल मुजाहिदीन (जो कि जमात-ए-इस्लामी द्वारा जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग कर पाकिस्तान में जोड़े जाने के लिये जिहाद शुरु करने के उद्देश्य से 1989 में बनाया गया था) द्वारा जारी एक प्रेस-विज्ञप्ति छापी जिसमें सभी हिंदुओं को कश्मीर छोड़ने के लिये कहा गया था. एक और स्थानीय समाचार पत्र अल सफा में भी यही विज्ञप्ति छपी.
आने वाले दिनों में कश्मीर की वादियों में अफरा-तफरी मच गयी. मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला की सरकार हालात पर काबू नहीं पा सकी. सड़कों पर बंदूकधारी आतंकवादी और कट्टरपंथी क़त्ल-ए-आम करते और भारत-विरोधी नारे लगाते खुले-आम घूम रहे थे. जल्द ही हिंदुओं, खासकर कश्मीरी पंडितों के मारे जाने की ख़बरों का ताँता लग गया. अमन और ख़ूबसूरती की मिसाल कश्मीर की वादियाँ जल उठीं. जगह-जगह धमाके हो रहे थे, मस्जिदों से अज़ान की जगह भड़काऊ भाषण गूंज रहे थे
दीवारे पोस्टरों से भर गयीं., सभी कश्मीरियों को आदेश था कि वह कड़ाई से इस्लाम का पालन करें. मदिरा के सेवन और खरीद-फरोख़्त तथा सिनेमा घरों पर पाबंदी लगा दी गयी थी. सभी लोगों को मजबूर किया गया कि उनकी घड़ियाँ पाकिस्तानी समय दिखायें. कश्मीरी पंडितों, जो कि सही अर्थों में कश्मीर के निवासी हैं तथा जिनकी सभ्यता और सांस्कृतिक इतिहास लगभग 5000 वर्ष पुराना है, के मकान-दुकानों तथा अन्य प्रतिष्ठानों को चिह्नित कर दिया गया. उनके दरवाज़ों पर नोटिस लगा दिये गये जिनमें लिखा था कि वे या तो 24 घंटो के भीतर कश्मीर छोड़ दें या फिर मरने के लिये तैयार रहें. इनमें से एक में साफ तौर पर कहा गया था कि वे या तो इस्लाम को अपना लें अथवा भाग जायें अन्यथा मरने को तैयार रहें.
19 जनवरी को श्री जगमोहन ने जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल की गद्दी संभाली. मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला ने इस्तीफा दे दिया. कश्मीर में व्यवस्था को बहाल करने के लिये सबसे पहले कर्फ्यू लगा दिया गया लेकिन यह भी आतंवादियों और कट्टरपंथियों को रोकने में नाकाम रहा.
सारे दिन जम्मू एंड कश्मीर लिबरेशन फ्रंट और हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकवादी आम लोगों को कर्फ्यू तोड़ सड़क पर आने के उपदेश देते रहे. शाम ढलते यह उपदेश और भी तेज़ होते गये. 'कश्मीर में अगर रहना है, अल्लह-ओ-अक़बर कहना है', 'यँहा क्या चलेगा, निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा', और असि गच्ची पाकिस्तान, बताओ रोअस ते बतानेव सान' जैसे नारे रात भर मस्जिदों से गूँजते रहे.
इससे पहले के महीनों में नामी वकील तथा भाजपा के सदस्य पं. टीका लाल टपलू की जे.के.एल.एफ. द्वारा श्रीनगर में 14 सितंबर 1989 को दिन-दहाड़े की गयी नृशंस हत्या के पश्चात क़रीब 300 हिंदु महिलायें और पुरुष जिसमें लगभग सभी कश्मीरी पंडित थे, मारे जा चुके थे. इसके बाद जल्दी ही श्रीनगर के न्यायाधीश एन.के. गंजू की भी गोली मार कर हत्या कर दी गयी. औरतों का अपहरण कर उनके साथ दुष्कर्म करने के पश्चात उनकी भी ह्त्या की जा रही थी. कश्मीर में हिंदुओं की निर्मम हत्यायें आतंकवादियों के परपीड़क स्वभाव की द्योतक थीं.
सभी पीड़ितों को भयंकर यातनायें दी जाती थीं. आतंकवादी लोगों की हत्या करने के लिये स्टील के तार से गला घोटना, फांसी देना, लोहे की सलाखों से दागना, ज़िंदा जलाना, मारपीट करना, आंखे निकाल लेना, ज़िंदा डुबाना तथा अंग विच्छेदन जैसे बर्बर अमानविक तरीके अपनाते थे. संवेदनहीनता की हद यह थी कि किसी को मारने के बाद यह आतंकवादी जश्न मनाते थे. कई बार तो शवों का समुचित दाह-संस्कार भी नहीं करने दिया जाता था.
कश्मीरी पंडित एक बार फिर आतंकियों के निशाने पर थे. अंततः 19 जनवरी, 1990 की रात निराशा और अवसाद से जूझते हज़ारों कश्मीरी पंडितों का साहस टूट गया. उन्होंने अपनी जान बचाने के लिये अपने घर-बार को छोड़ अपनी मातृभूमि से पलायन का निर्णय लिया. इस प्रकार 350,000 कश्मीरी पंडितों को जो कि कश्मीर की हिंदु आबादी का 99% हिस्सा थे, पाकिस्तान में प्रशिक्षित आतंकवादियों और चरमपंथियों के द्वारा कश्मीर से खदेड़ दिया गया. अपने ही देश में इन हिंदुओं को आतंक, लूटपाट, आगजनी और हत्या की बर्बर मुहिम के चलते अपनी मातृभूमि से दूर एक निर्वासित जीवन जीने के लिये मजबूर होना पड़ा.
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असर:
20वीं शताब्दी में हुए इस पलायन के 5 साल बाद तक कश्मीर से ज़बर्दस्ती निष्काषित किये गये हिंदुओं में से लगभग 5000 लोग विभिन्न कैंपो तथा अन्य स्थानों पर काल का ग्रास बन गये. इनमे से कई लोगों (1000 से अधिक) की मृत्यु 'सनस्ट्रोक'की वजह से हुई क्योंकि कश्मीर की सर्द जलवायु के आदी यह लोग भारत में अन्य स्थानों पर पड़ने वाली भीषण गर्मी का प्रकोप सहन नहीं कर सके. क़ई अन्य दुर्घटनाओं तथा हृदयाघात का शिकार हो गये.
असर:
20वीं शताब्दी में हुए इस पलायन के 5 साल बाद तक कश्मीर से ज़बर्दस्ती निष्काषित किये गये हिंदुओं में से लगभग 5000 लोग विभिन्न कैंपो तथा अन्य स्थानों पर काल का ग्रास बन गये. इनमे से कई लोगों (1000 से अधिक) की मृत्यु 'सनस्ट्रोक'की वजह से हुई क्योंकि कश्मीर की सर्द जलवायु के आदी यह लोग भारत में अन्य स्थानों पर पड़ने वाली भीषण गर्मी का प्रकोप सहन नहीं कर सके. क़ई अन्य दुर्घटनाओं तथा हृदयाघात का शिकार हो गये.
डॉक्टरों के अनुसार गहरे भावनात्मक तथा मानसिक आघात तथा मानसिक दबाव के चलते ही यह लोग असामयिक मृत्य को प्राप्त हो गये. बसे बसाये परिवार तितर-बितर हो गये. आज भिन्न संस्कृति वाला यह विस्थापित समुदाय अपनी ज़मीं से जुदा होने के कारण विलुप्त होने की कगार पर है.
क्या ही विडंबना है कि इतना सब होने के बावजूद इस घटना को लेकर शायद ही कोई रिपोर्ट दर्ज हुई. यदि यह घटना अल्पसंख्यकों [विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय] के साथ हुई होती तो हो-हल्ला मचा होता, कितनी ही फिल्में बन जातीं, मीडिया छोटी से छोटी जानकारी भी बढ़ा-चढ़ा के जनता तक पँहुचाता. लेकिन चूंकि पीड़ित हिंदू थे इसलिये न तो कुछ लिखा गया न ही कहा गया. सरकारी तौर पर भी कहा गया कि कश्मीरी पंडितों ने स्वंय पलायन और विस्थापन का चुनाव किया.
राष्ट्रीय मानवाधिकार संघ ने एक हल्की-फुल्की जाँच के बाद सभी तथ्यों को ताक पर रख इस घटना को जाति-संहार मानने से इनकार कर दिया. जबकि अब तक आतंकवादी हमलों में कितने ही स्त्री, पुरुष और बच्चे मारे जा चुके हैं.
कश्मीर में अल्पसंख्यक समुदाय की तरह रह रहे हिन्दू अब अपने ही देश में, अपितु कुछ तो अपने ही राज्यों में शरणार्थियों की तरह रह रहे हैं. यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि जम्मू-कश्मीर तथा भारत सरकार दोनों ही कश्मीरी पंडितों को इस्लामी आतंकवाद से बचाने में नाक़ामयाब रहीं. जम्मू-कश्मीर एक मुस्लिम बाहुल्य प्रदेश है तो क्या यह सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है कि भारत में एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की व्यवस्था बनाये रखने के लिये कश्मीर में पंडितों की पूरी सुरक्षा का बंदोबस्त किया जाये.
हमारे संविधान के अनुसार भारत में किसी भी व्यक्ति को धर्म, रंग और जाति के आधार पर विभाजित किये बिना सम्मानपूर्वक जीवन बिताने का अधिकार है. कश्मीरी पंडितों का यह पलायन क्या उस अधिकार का हनन नहीं है. केवल सरकार ही नहीं विश्व की बड़ी-बड़ी मनवाधिकार संस्थायें भी इस मामले पर चुप्पी साधे रहीं. विख्यात अंतर्राष्ट्रीय संगठनों जैसे एम्नेस्टी इंटरनेशनल, एशिया वॉच तथा कई अन्य संस्थाओं मे आज भी इस मामले पर सुनवाई होना बाकी है. उनके प्रतिनिधि अभी तक दिल्ली, जम्मू तथा भारत के अन्य राज्यों में स्थित उन विभिन्न कैंपों का दौरा नहीं कर सके हैं जँहा पिछले दस साल से कश्मीरी पंडितों के परिवार शरणार्थियों का जीवन व्यतीत कर रहे हैं.
एक पूरा समुदाय समाप्त हो कर भी अपनी आवाज़ लोगों तक नहीं पँहुचा सका. शायद हिंदूओं के प्रति विश्व की संवेदनायें जागना अभी बाकी है
THANKS AND COURTESY BY TARAKASH
THANKS AND COURTESY BY TARAKASH
Thursday, July 1, 2010
1 सुलगता धरती का स्वर्ग
धरती का स्वर्ग कश्मीर एक बार फिर सुलग रहा है। खासकर सोपोर और उसके आसपास के इलाकों में बीते करीब तीन हफ्ते से स्थिति गंभीर बनी हुई है। राज्य के उत्तर से शुरू हुआ यह आदोलन अब धीरे-धीरे दक्षिण के हिस्सों में भी अपना असर करने लगा है। जिस तरह का माहौल स्टेट में बन रहा है, उससे राज्य और केंद्र केबीच टकराव बढ़ने की संभावना जताई जा रही है। कश्मीर घाटी के लोग एकाएक क्यों सड़कों पर उतर आए? क्यों घाटी एक बार फिर सुलग रही है? क्यों राज्य केअलगाववादी तत्व एक बार फिर जनभावनाएं भड़काकर अपने गर्हित उद्देश्यों को पूरा करने में जुटे हुए हैं? पेश है एक खास रिपोर्ट..
पैरामिलिट्री फोर्स है समस्या
दरअसल इस सारे मामले की जड़ कश्मीर में पैरामिलिट्री फोर्स की तैनाती है। इसे लेकर राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और एवं अलगाववादी संगठन लगातार विरोध करते आ रहे हैं। इसकेअलावा यह लोग सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून [एएफएसपीए] को वापस लेने या इसमें निहित कुछ अधिकारों को कम करने की माग भी कर रहे हैं।
कानून का विरोध
अलगाववादियों का आरोप है कि इस कानून से राज्य में पैरामिलिट्री फोर्स को अपनी मनमानी करने और मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन करने का मौका मिलता है। साथ ही वह सेना पर फर्जी मुठभेड़ का भी आरोप लगाते हैं। खुद सीएम उमर अब्दुल्ला इन मामलों को लेकर केंद्र सरकार से अपनी नाराजगी जाहिर कर चुकेहैं। हुर्रियत के गिलानी धड़े ने तो इसे लेकर राज्य में आदोलन चला रखा है। यह अलग है कि हुर्रियत अपने विभाजन के बाद अपनी उतनी प्रासंगिक नहीं रह गई है। जम्मू कश्मीर केकानून मंत्री अली मोहम्मद सागर कहते हैं कि, राज्य सरकार चरमपंथियों और अलगाववादियों के राजनीतिक नेतृत्व के खिलाफ लड़ रही है, लेकिन हम अपने ही लोगों के खिलाफ नहीं लड़ सकते जिन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर चुनाव में हिस्सा लिया।
मौका देखते अलगाववादी
ताजा मामले के तूल पकड़ने का कारण सीआरपीएफ के जवानों द्वारा की गई फायरिंग में कुछ युवाओं की मौत है। आजादी के बाद से लगातार संवेदनशील बने रहने वाले इस राज्य में अलगाववादी ऐसा कोई अवसर अपने हाथ से नहीं जाने देते जिससे उन्हें भारत सरकार को कठघरे में खड़ा करने और लोगों की भावनाओं को भड़काने का मौका मिले।
केंद्र कर रहा है विचार
हालाकि केंद्र सरकार इस कानून को अधिक मानवीय बनाने पर विचार कर रही है। पीएम मनमोहन सिंह खुद इस बाबत आश्वासन दे चुके हैं। पीएम ने अपनी हाल की श्रीनगर यात्रा के दौरान सुरक्षा बलों को कड़ा निर्देश भी दिया था कि वह मानवाधिकारों का उल्लंघन न करें।
आर्मी कर रही विरोध
इंडियन आर्मी इस कानून को हटाए जाने अथवा इसे हल्का करने की किसी भी मंशा का विरोध करती रही है। आर्मी चीफ वीके सिंह कहते हैं कि जो लोग सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को वापस लेने अथवा उसे हल्का करने की माग कर रहे हैं, वह संकीर्ण राजनीतिक लाभ के लिए ऐसा कर रहे हैं। हाल में रक्षा मामलों संबंधित मैग्जीन लैंड फोर्सेज में दिए एक इंटरव्यू में सिंह ने कहा था कि लोगों में इस कानून को लेकर गलतफहमी है। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि ऐसा करने से सेना का संचालन गंभीर रूप से प्रभावित होगा।
क्या है विशेषाधिकार कानून?
सशस्त्र सेना विशेष अधिकार अधिनियम [एएफएसपीए] देश के विभिन्न भागों में 1958 से लागू है। न केवल जम्मू कश्मीर बल्कि नॉर्थ-इस्ट स्टेट्स में भी इसे लेकर नाराजगी है। इस एक्ट की कुछ धाराओं में आर्मी को असीमित अधिकार दिए गए हैं। विरोध इन्हीं धाराओं को लेकर हो रहा है। एक्ट की धारा 4 क के मुताबिक संबंधित अफसर शाति व्यवस्था कायम करने के लिए वार्निग देने ने के अलावा अन्य कई प्रकार के बल प्रयोग करने के लिए फ्री हैं। चाहे उसके कारण किसी की मृत्यु हो जाए। उसकी उपधारा ग के अंतर्गत वह किसी भी ऐसे व्यक्ति को बिना वारंट के अरेस्ट कर सकता है जिसके द्वारा कोई संज्ञेय अपराध किए जाने की संभावना हो, और उपधारा घ के तहत ऐसी अरेस्टिंग करने के लिए वह बिना वारंट के किसी भी स्थान की तलाशी ले सकता है। इस एक्ट की सबसे खतरनाक बात यह है कि ऐसा करने के लिए उस अफसर को अपने से ऊपर के किसी अफसर से अनुमति लेने की कोई आवश्यकता नहीं है और न ही वह उस कार्यवाही के लिए किसी के प्रति जवाबदेह है। इस एक्ट की धारा 7 के मुताबिक सशस्त्र सेना के किसी अधिकारी पर मुकदमा चलाने के लिए केन्द्रीय सरकार की पूर्व अनुमति लेना जरूरी है।
[जेएनएन
THANKS AND COURTESY BY JNN
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