80 के दशक में इराक ने अपनी परमाणु योजनाओं को तेज़ कर दिया था. इराक का कहना था कि उसका परमाणु कार्यक्रम नागरिक जरूरतों के लिए है और उसका परमाणु बम बनाने का कोई इरादा नहीं है. परंतु अमरीका और इज़रायल सहित अनेक देश इराक की इस बात पर यकीन नहीं रखते थे.
इराक ने फ्रांस के सहयोग से एक परमाणु रिएक्टर स्थापित कर दिया था. इजरायल का मानना था कि यह परमाणु रिएक्टर उसके लिए खतरनाक साबित हो सकता है. 7 जून 1981 को कुछ इज़रायली लडाकु विमानों ने विपरीत परिस्थियो में इराक के अंदर घुस कर राजधानी बगदाद के समीप स्थित इस परमाणु रिएक्टर को धमाकों से उडा दिया. यह दुस्साहसी कदम ऑपरेशन ओपेरा के नाम से जाना जाता है.
इराक ने 60 के दशक मे अपना परमाणु कार्यक्रम शुरू किया. 70 का दशक आते आते उसने परमाणु रिएक्टर की आवश्यकता महसूस की. इराक राजनेताओं ने इस बाबत फ्रांस और इटाली से बात की. इराक फ्रांस से गैस ग्रेफाइट प्लूटोनियम प्रोडक्शन रिएक्टर चाहता था. परंतु फ्रांस इसके लिए राज़ी नहीं हुआ. फ्रांस को डर था कि इससे इराक संवर्धित प्लूटोनियम बनाने में सफल हो जाएगा और बाद में परमाणु बम बनाने में भी. इटली ने भी यही रूख अपनाया. परंतु इराक सरकार ने कोशिशें जारी रखी और आखिरकार वे फ्रांस सरकार को ओज़िरिज़ क्लास का रिएक्टर स्थापित करने में मदद प्राप्त करने में सफल हो गए. यह 40 मेगावॉट का लाइट वाटर न्यूक्लियर रिएक्टर था, जिसका निर्माण 1979 में बगदाद के समीप अल तुवेथा में किया गया. इस रिएक्टर का नाम फ्रांस ने ऑजिराक [ऑज़िरिज़ और इराक को मिलाकर] रखा. इराक ने इसे तामुज़ नाम दिया.
इराक और फ्रांस के बीच जो समझौता हुआ था उसके तहत इस रिएक्टर का सैन्य इस्तेमाल वर्जित था. विशेषज्ञ मानते थे कि इराक इस रिएक्टर की मदद से परमाणु बम नहीं बना पाएगा. आईएईए के निरीक्षकों ने भी रिएक्टर का दौरा करने के बाद यही बात कही. परंतु यह बात हर किसी के गले नहीं उतरी. अमरीका की एजेंसी सीआईए का मानना था कि इराक परमाणु बम बनाने के प्रति समर्पित है और इस उसकी यह महत्वाकांक्षा पूरी करने में ओज़िराक महत्वपूर्ण भाग निभा सकता है. इज़रायली गुप्तचर एजेंसी मोसाद का भी यही मानना था. विशेष तौर पर इज़रायल इसे अपने लिए गम्भीर खतरा मानने लगा था और इस रिएक्टर को किसी भी तरह से निष्क्रिय करना चाहता था.
ऑपरेशन ओपेरा
काफी सोच विचार के बाद इज़रायली सेना ने ऑपरेशन ओपेरा की रूपरेखा तैयार की. इस ऑपरेशन के तहत कुछ इज़रायली लड़ाकु जहाज इज़रायली सैन्य बेस से उड़कर जोर्डन और सउदी अरब के रास्ते इराक में दाखिल होते और ऑजिराक रिएक्टर को बमों से उडाकर वापिस उसी रास्ते लौट आते. यह ऑपरेशन आसान नहीं था. इज़रायली बेस से यह रिएक्टर 1600 किमीदूर था. यानी कि आने और जाने में करीब 3200 की दूरी तय करनी पड़ती. इज़रायली लडाकु विमानों F-16A आदि में इंधन की इतनी ही मात्रा आती थी. यानी कि यह तय था कि ऑपरेशन ओपेरा में भाग लेने वाले विमानों के लौटने की गारंटी नहीं थी. यदि विमान इराकी वायुसेना से उलझ जाए और जरा सी भी देर हवा में अतिरिक्त रह जाए तो काफी बड़ी समस्या उत्पन्न होने वाली थी.
दूसरी तरफ विमानों को जोर्डन और सउदी अरब के ऊपर से उडकर जाना था जो कि एक और समस्या थी. इसके अलावा इज़रायली गुप्तचल संस्था मोसाद को भी सही सही मालूम नहीं था कि इराक ने ओज़िराक रिएक्टर की सुरक्षा के लिए क्या इंतजाम किए हैं. मोसाद को पता नहीं था कि वहाँ कितनी संख्या में एंटी एयरक्राफ्ट मिसाइलें तैनात की गई हैं. कुल मिलाकर यह ऑपरेशन दुस्साहसी था और इसमें भाग लेने वाले सैनिक जानते थे कि उनका वापस लौटना संदिग्ध है.
मेनाशेम बेजिन, जो कि उस समय इज़रायल के प्रधानमंत्री थे, ने इस ऑपरेशन को मंजूरी दे दी थी. ऑपरेशन का दिन चुना गया 7 जून जो कि रविवार था. रविवार इसलिए ताकि रिएक्टर में काम कर रहे विदेशी नागरिक और वैज्ञानिक छुट्टी पर हों और जब इजरायली जहाज बम गिराएँ तो कम से कम नागरिक मरें.
इस ऑपरेशन के लिए F-16A लडाकु जहाज को चुना गया और इनमें इंधन की अतिरिक्त टंकी लगाई गई. F-16 को सहायता देने के लिए F-15 जहाजों के समूह तैयार किए गए. एफ15 का काम एफ16 को मदद पहुँचाना, आकाश में नजर रखना और सम्भावित खतरे से निपटना था.
7 जून की शाम 4 बजे इज़रायली वायु सेना के 8 एफ16 विमान मिशन की कामयाबी की दुआ के साथ इजरायली बेस से उड़े और जोर्डन की सीमा में दाखिल हो गए. इन विमानों के ऊपर इतनी बडी मात्रा में हथियार लदे थे कि सउदी अरब की सीमा के भीतर ही अतिरिक्त टंकियों का इंधन समाप्त हो गया और इन टंकियों को सउदी रेगिस्तान में गिरा दिया गया. अब ये विमान खुद के इंधन के भरोसे थे. उनके पास समय कम था और कार्य जटिल.
विमानों को मार्ग में कोई बाधा नजर नहीं आई और ये आराम से इराकी सीमा में दाखिल हो गए. कुछ एफ15 विमान बाकी बेड़े से अलग हो गए ताकी इनका बैकअप के तहत इस्तेमाल किया जा सके. शाम 6:35 बजे एफ16 विमानों को ऑजिराक रिएक्टर नजर आया. वे उससे 20 किलोमीटर दूर थे. सभी एफ16 विमानों ने एक दूसरे से नियत दूरी बनाई और 35 डिग्री के कोण पर गोता लगाया. जब ये विमान रिएक्टर से 1100 मीटर दूर थे तो इन्होनें 5 सेकंड के अंतराल पर मार्क 84 बम गिराने शुरू किए. इजरायली रिपोर्ट के अनुसार कुल 16 बम गिराए गए जिसमें से 14 फटे और 2 डिटोनेट नहीं हुए.
इराक ने फ्रांस के सहयोग से एक परमाणु रिएक्टर स्थापित कर दिया था. इजरायल का मानना था कि यह परमाणु रिएक्टर उसके लिए खतरनाक साबित हो सकता है. 7 जून 1981 को कुछ इज़रायली लडाकु विमानों ने विपरीत परिस्थियो में इराक के अंदर घुस कर राजधानी बगदाद के समीप स्थित इस परमाणु रिएक्टर को धमाकों से उडा दिया. यह दुस्साहसी कदम ऑपरेशन ओपेरा के नाम से जाना जाता है.
इराक ने 60 के दशक मे अपना परमाणु कार्यक्रम शुरू किया. 70 का दशक आते आते उसने परमाणु रिएक्टर की आवश्यकता महसूस की. इराक राजनेताओं ने इस बाबत फ्रांस और इटाली से बात की. इराक फ्रांस से गैस ग्रेफाइट प्लूटोनियम प्रोडक्शन रिएक्टर चाहता था. परंतु फ्रांस इसके लिए राज़ी नहीं हुआ. फ्रांस को डर था कि इससे इराक संवर्धित प्लूटोनियम बनाने में सफल हो जाएगा और बाद में परमाणु बम बनाने में भी. इटली ने भी यही रूख अपनाया. परंतु इराक सरकार ने कोशिशें जारी रखी और आखिरकार वे फ्रांस सरकार को ओज़िरिज़ क्लास का रिएक्टर स्थापित करने में मदद प्राप्त करने में सफल हो गए. यह 40 मेगावॉट का लाइट वाटर न्यूक्लियर रिएक्टर था, जिसका निर्माण 1979 में बगदाद के समीप अल तुवेथा में किया गया. इस रिएक्टर का नाम फ्रांस ने ऑजिराक [ऑज़िरिज़ और इराक को मिलाकर] रखा. इराक ने इसे तामुज़ नाम दिया.
इराक और फ्रांस के बीच जो समझौता हुआ था उसके तहत इस रिएक्टर का सैन्य इस्तेमाल वर्जित था. विशेषज्ञ मानते थे कि इराक इस रिएक्टर की मदद से परमाणु बम नहीं बना पाएगा. आईएईए के निरीक्षकों ने भी रिएक्टर का दौरा करने के बाद यही बात कही. परंतु यह बात हर किसी के गले नहीं उतरी. अमरीका की एजेंसी सीआईए का मानना था कि इराक परमाणु बम बनाने के प्रति समर्पित है और इस उसकी यह महत्वाकांक्षा पूरी करने में ओज़िराक महत्वपूर्ण भाग निभा सकता है. इज़रायली गुप्तचर एजेंसी मोसाद का भी यही मानना था. विशेष तौर पर इज़रायल इसे अपने लिए गम्भीर खतरा मानने लगा था और इस रिएक्टर को किसी भी तरह से निष्क्रिय करना चाहता था.
ऑपरेशन ओपेरा
काफी सोच विचार के बाद इज़रायली सेना ने ऑपरेशन ओपेरा की रूपरेखा तैयार की. इस ऑपरेशन के तहत कुछ इज़रायली लड़ाकु जहाज इज़रायली सैन्य बेस से उड़कर जोर्डन और सउदी अरब के रास्ते इराक में दाखिल होते और ऑजिराक रिएक्टर को बमों से उडाकर वापिस उसी रास्ते लौट आते. यह ऑपरेशन आसान नहीं था. इज़रायली बेस से यह रिएक्टर 1600 किमीदूर था. यानी कि आने और जाने में करीब 3200 की दूरी तय करनी पड़ती. इज़रायली लडाकु विमानों F-16A आदि में इंधन की इतनी ही मात्रा आती थी. यानी कि यह तय था कि ऑपरेशन ओपेरा में भाग लेने वाले विमानों के लौटने की गारंटी नहीं थी. यदि विमान इराकी वायुसेना से उलझ जाए और जरा सी भी देर हवा में अतिरिक्त रह जाए तो काफी बड़ी समस्या उत्पन्न होने वाली थी.
दूसरी तरफ विमानों को जोर्डन और सउदी अरब के ऊपर से उडकर जाना था जो कि एक और समस्या थी. इसके अलावा इज़रायली गुप्तचल संस्था मोसाद को भी सही सही मालूम नहीं था कि इराक ने ओज़िराक रिएक्टर की सुरक्षा के लिए क्या इंतजाम किए हैं. मोसाद को पता नहीं था कि वहाँ कितनी संख्या में एंटी एयरक्राफ्ट मिसाइलें तैनात की गई हैं. कुल मिलाकर यह ऑपरेशन दुस्साहसी था और इसमें भाग लेने वाले सैनिक जानते थे कि उनका वापस लौटना संदिग्ध है.
मेनाशेम बेजिन, जो कि उस समय इज़रायल के प्रधानमंत्री थे, ने इस ऑपरेशन को मंजूरी दे दी थी. ऑपरेशन का दिन चुना गया 7 जून जो कि रविवार था. रविवार इसलिए ताकि रिएक्टर में काम कर रहे विदेशी नागरिक और वैज्ञानिक छुट्टी पर हों और जब इजरायली जहाज बम गिराएँ तो कम से कम नागरिक मरें.
इस ऑपरेशन के लिए F-16A लडाकु जहाज को चुना गया और इनमें इंधन की अतिरिक्त टंकी लगाई गई. F-16 को सहायता देने के लिए F-15 जहाजों के समूह तैयार किए गए. एफ15 का काम एफ16 को मदद पहुँचाना, आकाश में नजर रखना और सम्भावित खतरे से निपटना था.
7 जून की शाम 4 बजे इज़रायली वायु सेना के 8 एफ16 विमान मिशन की कामयाबी की दुआ के साथ इजरायली बेस से उड़े और जोर्डन की सीमा में दाखिल हो गए. इन विमानों के ऊपर इतनी बडी मात्रा में हथियार लदे थे कि सउदी अरब की सीमा के भीतर ही अतिरिक्त टंकियों का इंधन समाप्त हो गया और इन टंकियों को सउदी रेगिस्तान में गिरा दिया गया. अब ये विमान खुद के इंधन के भरोसे थे. उनके पास समय कम था और कार्य जटिल.
विमानों को मार्ग में कोई बाधा नजर नहीं आई और ये आराम से इराकी सीमा में दाखिल हो गए. कुछ एफ15 विमान बाकी बेड़े से अलग हो गए ताकी इनका बैकअप के तहत इस्तेमाल किया जा सके. शाम 6:35 बजे एफ16 विमानों को ऑजिराक रिएक्टर नजर आया. वे उससे 20 किलोमीटर दूर थे. सभी एफ16 विमानों ने एक दूसरे से नियत दूरी बनाई और 35 डिग्री के कोण पर गोता लगाया. जब ये विमान रिएक्टर से 1100 मीटर दूर थे तो इन्होनें 5 सेकंड के अंतराल पर मार्क 84 बम गिराने शुरू किए. इजरायली रिपोर्ट के अनुसार कुल 16 बम गिराए गए जिसमें से 14 फटे और 2 डिटोनेट नहीं हुए.
[ध्वस्त ऑजिराक]
इराकी एंटी एयरक्राफ्ट डिविज़न ने जवाबी कार्रवाही की. परंतु तब तक काफी देर हो चुकी थी. इजरायली एफ16 स्क्वाड्रन ने तुरंत 12200 मीटर की ऊंचाई प्राप्त की और वे इजरायल की तरफ लौटने लगे. मार्ग में उन्हें कोई चुनौती नहीं मिली परंतु उनका इंधन समाप्त होने लगा था. जब सभी विमान इजरायली सीमा के भीतर लौटे तब तक उनका इंधन लगभग समाप्त हो चुका था. परंतु सभी विमान सकुशल लैंड कर गए.
इसके बाद:
इजरायल के इस दुस्साहसी कदम के चहुँ ओर आलोचना हुई. इस घटना के बारे में जब अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन को पता चला तो उन्होनें कथित रूप से अपने सुरक्षा सलाहकार को कहा कि "लड़के हमेशा लड़के ही रहेंगे". उन पर दबाव था कि वे इजरायल के साथ दूरी बना लें. लेकिन उन्होनें इसका उल्टा किया और इज़रायल के साथ सैन्य संबंधों को और भी मजबूत बनाया.
संयुक्त राष्ट्र ने 36/27 रिजोल्यूशन पास कर इस हमले को आक्रामकता की पराकाष्ठा कहा. संयुक्त राष्ट्र ने इजरायल को निर्देश दिया की वह इस हमले में हुए जान माल के नुकसान का मुआवजा चुकाए. रिजोल्यूशन में यह भी कहा गया कि इजरायल आगे से ऐसा कोई हमला ना करे.
इससे पहले सयुंक्त राष्ट्र में इजरायल की परमाणु नीतियों के ऊपर भी बहस होती थी. इजरायल स्वयं नागरिक इस्तेमाल के लिए परमाणु रिएक्टर स्थापित करने की बात कहता था परंतु कई देश मानते थे कि इजरायल स्वयं परमाणु बम बना रहा है.
फ्रांस ने इस घटना की निंदा की और कहा कि उसका उद्देश्य इराक की नागरिक जरूरतों को पूरा करने तक ही है. फ्रांस इसलिए भी नाराज था क्योंकि इस हमले में उसका एक नागरिक मारा गया था. परंतु बाद में इजरायल फ्रांस पर दबाव बनाने मे कामयाब रहा और फ्रांस ने पहले हामी भरने के बाद बाद में ओजिराक रिएक्टर को फिर से बनाने मे इराक की मदद करने से इंकार कर दिया.
इज़रायल के इस हमले की वजह से इराक का परमाणु कार्यक्रम बेहद प्रभावित हुआ और वह फिर कभी "सही" दिशा में आगे नहीं बढ पाया. इस हमले की वजह से प्रधानमंत्री मेनाशेम बेजिन को भी लाभ हुआ और तीन सप्ताह के बाद हुए चुनावों में उनकी पार्टी को जीत हासिल हुई.
इस हमले में इलान रेमोन नामक एक 27 वर्षीय युवा पायलट ने भी भाग लिया था. इलान बाद में इजरायल ने प्रथम अंतरिक्षयात्री बने. 2003 में हुए कोलम्बिया स्पेश शटल हादसे में उनकी मृत्यु हो गई
.THANKS AND COURTESY BY TARAKASH
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