यह दैत्याकार धक्का है। सरकार ने दिया है। कल लगा वह अन्ना हजारे का मान रखेगी। लगा क्यों? सरकार ने खुद कहा था। देर रात करोड़ों जन के मान मर्दन पर उतरे से दीखे मंत्री। राष्ट्र को दिया दंभपूर्ण उत्तर : 'अन्ना का अनशन उनकी समस्या है। हमें पता नहीं।' तो किसे पता है? ऐसे दमन को कौन माफ करेगा? क्यों अचानक बदल गए सरकारी तेवर?
कल तक सरकार को शक था कि वह अकेली है। अब सभी पार्टियों को बुलाकर बात की तो 'धक्क' से रह गए। सारे नेता, दलगत राजनीति से तत्काल ऊपर उठकर एक स्वर में एकजुट होते नजर आए। एक भी नहीं बोला कि अन्ना वाला जन लोकपाल बिल लाओ। हां, चूंकि विरोधी दल हैं- संसद में सरकारी बिल को कोस चुके हैं- सो फिर से कोस दिया। लेकिन अन्ना को लेकर सिर्फ एक बात : अनशन समाप्त करवाना जरूरी। किसी भी तरीके से। यानी छल से या बल से। बस, इसी विपक्षी एकता से बल मिला सरकार को। और उसकी आवाज इतनी खुरदुरी हो गई, यकीन न हुआ। वार्ता में शामिल किरण बेदी के शब्दों में 'प्रणव मुखर्जी तो ऐसा बर्ताव कर रहे थे कि हम उनसे बात करने पहुंचे ही क्यों हैं।' हल ढूंढना तो दूर, अन्ना के साथियों को फटकार तक लगाई सरकार ने। हालांकि देर रात, जैसा कि होना ही था, मुखर्जी इससे पलट गए। जन भावनाओं से ऐसे खिलवाड़ को क्या संवेदनशील लोग माफ करेंगे? क्यों हो गए सारे विपक्षी दल एकमत?
ज्यादा गहराई में उतरने की जरूरत ही नहीं है। सर्वदलीय बैठक से ठीक पहले संसद के दोनों सदनों में सांसदों ने खुद ही सब साफ कर दिया। सांसद मानो बरस रहे थे। भ्रष्टाचार के विरुद्ध युद्ध में सक्रिय लोगों पर। हम सब पर। चीख रहे थे कि क्या लोकपाल भगवान के यहां से आएगा? फ्लैशबैक देखें तो यही भाषा सरकार की थी, कपिल सिब्बल शब्दश : यही बोले थे। सरकार, वो भी ऐसी सरकार जिसके एक के बाद एक मंत्री भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे नजर आ रहे हों, जेल जा रहे हों,- उनकी हूबहू नकल विपक्षी करें, यह बिरला अवसर ही तो है। वो भी आवाज, अंदाज और मकसद सभी में। विरोधी दल इसलिए ऐसा कर रहे हैं क्योंकि उन्हीं के शब्दों में 'कुछ लोग लोकसभा को खत्म करने के षड्च्यंत्र में जुटे हैं, राज्यसभा दिखलाई ही नहीं देगी, अगर ये सफल हो गए।' ऐसा इसलिए क्योंकि अन्ना के अनुयाइयों ने सांसदों को घेरना शुरू कर दिया है। घिरने से बिफरे विरोधी दल इसलिए भ्रष्टाचार पर सरकार के साथ हो लिए। क्या मतदाता ऐसे विरोधी दलों को माफ करेगा? क्यों भरोसा करेगा अब देश सरकार पर?
फिलहाल किसी को किसी पर भरोसा न तो बचा है, न ही जरूरत है। ऐसे माहौल में लोगों को किसी मंत्री, नेता, किसी इंसान पर भरोसा करना ही नहीं चाहिए। सिर्फ कागजात पर भरोसा करना चाहिए। जुझारू बुजुर्ग गांधीवादी को अपने लिए लड़ते देख एक कृतज्ञ देश और उसकी पीढ़ियां क्या ऐसी कृतघ्न सरकार को माफ कर पाएंगी?
Source: कल्पेश याग्निक
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