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Tuesday, March 8, 2011

0 अर्जुन सिंह के लिए कुर्सी से बढ़कर कोई साध्‍य नहीं रहा (Arjun Singh)

सामाजिक सरोकार को सदा हाशिए पर रखा एक बड़े समाचार एजेंसी के प्रमुख रहे बुजुर्ग पत्रकार महोदय ने कुछ साल पहले एक अद्भुत संस्मरण सुनाया था. चूंकि संबंधित सभी व्यक्ति अब दिवंगत हैं अतः नाम लेना उचित नहीं है, लेकिन वाकया रोचक है. बात उस समय की है जब संजय गांधी का असामयिक निधन हो गया था. एक तो एक युवा एवं जुझारू, चर्चित व्यक्ति का असमय जाना और दूसरा उसका प्रधानमंत्री का पुत्र होना. उस राष्ट्रीय खबर को लोग राष्ट्रीय त्रासदी के रूप में देखना भी चाहते थे.
समाचार एजेंसी में कार्यरत होने के नाते वे पत्रकार एक पूर्व प्रधानमंत्री का शोक सन्देश लेने पहुचे. लेकिन नेता ने शोक व्यक्त करने से बिलकुल इनकार कर दिया. उन्होंने कहा कि मुझे मुझे संजय के जाने का कोई दुःख ही नहीं हुआ है तो व्यक्त क्यों करूं? अंततः काफी मनाने-समझाने पर शब्दों को तोड़-मरोड़ कर अंततः वे अपना दो शब्द संजय की श्रद्धांजलि के लिए देने को राजी हुए.
अब-जब नियति ने कांग्रेस और दुनिया दोनों जगह से एक साथ रुखसती का फैसला अर्जुन जी को सुनाया तो अनायास ही वह वाकया याद आ गया. परंपरा अनुसार पक्ष-विपक्ष के सभी नेताओं ने उन्हें अपनी विनम्र श्रद्धांजलि देते हुए खोज-खोज कर उनकी अच्छाइयों की चर्चा की है. लेकिन अगर सच्ची बात कही जाय तो समग्रता में अर्जुन सिंह जी की छवि एक ऐसे सामंत, एक ऐसे पदलोलुप राजनेता, एक (एक परिवार के प्रति) ऐसा चाटुकार और एक ऐसे शासक की उभरती है जिसके लिए 'कुर्सी' से बढ़ कर कभी कोई साध्य नहीं था. 'देश' जिनकी प्राथमिकताओं में इन प्राथमिकताओं के बाद आता था.
सार्वजनिक जीवन पर छाप छोड़ने वाले सभी व्यक्तित्व के जीवन में अक्सर यह अवसर उपस्थित होता है, जब आपको व्यक्तिगत या पारिवारिक हित और जनहित-राष्ट्रहित में से कोई एक चुनना होता है. अर्जुन जी का समग्र राजनीतिक जीवन उठा कर देख लें आपको सदा उनका निर्णय खुद के पक्ष में ही जाता दिखेगा. ऐसा ही निर्णय लेने का मौका उनके पास तब उपस्थित हुआ था जब पहली बार किसी शहर को गैस चैंबर में तब्दील कर दिया गया था. सदी की बड़ी त्रासदियों में से एक 'भोपाल गैस कांड' के समय मुख्यमंत्री रहे अर्जुन सिंह के सामने यह विकल्प था कि वह कराहती मानवता को मरहम लगाने का प्रयास कर आततायी एन्डरसन को गिरफ्त में लें या फ़िर अपने 'आका' को खुश करने के लिए ससम्मान उस अपराधी को सुरक्षित निकाल दें. अगर ज़रूरत हो तो अपने मतदाताओं के हित की खातिर कुर्सी को दांव पर लगा दें या अपने राज धर्म का पालन करें. अपने स्वभाव के अनुरूप उन्होंने दूसरा रास्ता चुना. जनता का नहीं लेकिन अपने 'जनार्दन' का वफादार बने रहने की यथासंभव-अधिकतम कीमत वे वसूलते भी रहे.
बात चाहे चुरहट लाटरी कांड की हो, प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते समय जातिगत राजनीति को बढ़ावा देने की या फ़िर बस्तर समेत तमाम छत्तीसगढ़ के इलाके को उपनिवेश बनाए रखने की, अर्जुन के लिए 'सामूहिक सरोकार' सदा हाशिए की चीज़ ही रही. हाशिए पर खड़े लोगों की चिंता करने की ज़रूरत महज़ इतनी जिससे वोट की ज़रूरत पूरी हो जाय. अन्यथा यह कैसे संभव है कि अपने मुख्यमंत्री रहते जो व्यक्ति केवल अपनी जाति को प्रश्रय देने के लिए बदनाम होता रहे, वही बाद में ज़रूरत पड़ने पर अवसरवादी बन जाति और धर्म आधारित तुष्टिकरण और आरक्षण की आग में देश को धकेलता रहे? मतलब यह कि जब भी जो भी बनना पड़े चाहे जातिवादी या समाजवादी, धार्मिक या धर्मनिरपेक्ष, देशभक्त या एंडरसन भक्त, परिवार भक्त या विद्रोही, हर बात क़ुबूल अगर 'अवसर' उसकी इजाज़त देता हो तो.
आज भी तमाम तरह के तुष्टिकरण एवं वर्गों के बीच विद्वेष पैदा कर अपनी रोटी सेक रहे नेताओं के बारे में जनता को यह सोचना चाहिए कि ये लोग कभी किसी के सगे नहीं होते. जब ज़रूरत होगी तो किसी भी आग में आपको झोंक कर अपनी प्रतिबद्धता बदलने में कपडे़ बदलने जैसी देर भी नहीं लगाएंगे. अगर यह सही नहीं होता तो तिलक-तराजू-तलवार को जूते चार मारने वाली मायावती कभी पंडितों को प्रश्रय नहीं देती. भूराबाल साफ़ करने वाले लालू यादव कभी सवर्णों के हित की बात करते नज़र नहीं आते. हिंदू ह्रदय सम्राट कल्याण सिंह कभी कारसेवकों के रक्त से सरयू को लाल करने वाले मुलायम की गोदी में नहीं बैठ जाते और फ़िर वहाँ से भी दुत्कारे जाने पर फ़िर दर-दर भटकने को मजबूर नहीं होते. ऐसे उदाहरणों की असंख्य श्रृखला होते हुए भी आज़ादी के साठ साल के बाद भी जनता का इस मामले में परिपक्व नहीं होना लोकतंत्र का एक सोचनीय पहलू है.
अर्जुन सिंह जी को अभी याद करते हुए संप्रग की पहली पारी के दौरान मानव संसाधन विकास मंत्री रहते हुए शिक्षा को राजनीति का अखाड़ा बना कर सम्प्रदाय आधारित विद्वेष की आग को भड़काने को भी मद्देनज़र रखना उचित होगा. इन सभी कामों से भला, भले किसी का न हुआ हो लेकिन समूहों के बीच जिस तरह से खाई पैदा करने का लगातार प्रयास किया गया उसकी भरपाई मुश्किल है.
अभी भी अर्जुन सिंह जी के 'उत्तराधिकारियों' की लंबी फौज है. इस फौज के सेनापति दिग्विजय सिंह जैसे लोग हैं, जो जनता द्वारा बुरी तरह से खारिज किये जाने के बाद अब हर तरह से देश को कलंकित करके भी अपना पुनर्वास करना चाहते हैं. बाटला हाउस से लेकर मुंबई आतंकी हमले तक सभी जगह शहीदों तक का अपमान कर, जबरन समूचे बहुसंख्यक समुदाय को आतंकी बनाने का प्रयास कर, वे वास्तव में उसी कांग्रेसी परंपरा का पालन कर रहे हैं जिसके अनुयायी अर्जुन सिंह जी भी थे. और उससे पहले जिसकी परिणति कभी भारत के बंटवारे तक के रूप में सामने आयी थी.
कांग्रेस के नेतृत्व में देश आज त्रासदी से गुजर रहा है. कभी महज़ एक रेल दुर्घटना हो जाने पर कुर्सी छोड़ देने का नजीर जिस देश और पार्टी में हो वहां आज बार-बार शर्मिंदगी झेलने के बावजूद सीवीसी मामले से लेकर एस बैंड, टू जी, राष्ट्रकुल आदि घोटाले तक हर मामले में कोर्ट की फटकार सहते, बार-बार माफी मांगने को मजबूर होने के बाद भी पद से चिपके रहने के लिजलिजे लिप्से ने देश में 'अर्जुन परंपरा' को मज़बूत ही किया है. एक ऐसी परंपरा जहां राजनीति का मतलब केवल अर्जुन की तरह सत्ता के मछली की आँख पर केवल निशाना साधना होता है. जहां नेताओं के लिए जनता किसी एकलव्य से ज्यादे की हैसियत नहीं रखती, जिसका अंगूठा कोई द्रोण जब चाहे उसी की छुरी से कटवा ले.
छत्तीसगढ़ के प्रथम राज्योत्सव में अतिथि बनकर आये अविभाजित मध्यप्रदेश के एक पूर्व मुख्यमंत्री ने राज्य निर्माण का विरोध करने के लिए सार्वजनिक रूप से माफी मांग कर अपना इहलोक और परलोक भी सुधार लिया था. उस समारोह से जाने के कुछ ही दिनों बाद वे दिवंगत भी हो गए थे. लेकिन ऐसी परंपरा शायद अर्जुन सिंह जी की मृत्यु से काफी पहले ही समाप्त हो गयी थी. अपने समय पर छाप छोड़ने वाले अर्जुन सिंह जी को अशेष श्रद्धांजलि.
Courtesy B4M,  पंकज झा छत्‍तीसगढ़ बीजेपी के मुखपत्र दीपकमल के संपादक हैं.



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