आजाद भारत के महान घोटाले भाग -2
1971 नागरवाला कांड. दिल्ली के पार्लियामेंट स्ट्रीट स्थित स्टेट बैंक शाखा से लाखों रुपये मांगने का मामला, इसमें इंदिरा गांधी का नाम भी उछला
नागरवाला कांड. 1971 की 24 मई को दिल्ली में एसबीआई की संसद मार्ग शाखा के कैशियर के पास एक फोन आया. फोन पर उक्त कैशियर से बांग्लादेश के एक गुप्त मिशन के लिए 60 लाख रुपये की मांग की गई और कहा गया कि इसकी रसीद प्रधानमंत्री कार्यालय से ले जाएं. यह खबर आई कि फोन पर सुनी जाने वाली आवाज़ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पी एन हक्सर की थी. बाद में पता चला कि यह कोई और आदमी था. रुपये लेने वाले और नकली आवाज निकाल कर रुपये की मांग करने वाले व्यक्ति रुस्तम सोहराबनागरवाला को गिरफ्तार कर लिया गया. 1972 में संदेहास्पद हालात में नागरवाला की मृत्यु हो गई. उसकी मौत के साथ ही मामले की असलियत भी जनता के सामने नहीं आ सकी. इस मामले को रफा-दफा कर दिया गया. घोटालों को दबाने का यह काम अब ज़ोर पकड़ने लगा था.
कर्नाटक के मुख्यमंत्री देवराज अर्स
कर्नाटक के मुख्यमंत्री देवराज अर्स और उनके मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के क़रीब 25 आरोप लगे. उन पर 20 एकड़ जमीन अपने दामाद को आवंटित करने, अपने परिवार को बेंगलुरू की पॉश कालोनी में चार कीमती भूखंड आवंटित करने, अपने भाई को राज्य फिल्मोद्योग का प्रभारी बनाने आदि सगे-संबंधियों को अवैध तरीकों से फायदा पहुंचाने के कई आरोप लगे, लेकिन मामला सामने आने के बाद भी कार्रवाई के नाम पर कुछ नहीं हुआ
1976 कुओ तेल घोटाला. आईओसी ने हांगकांग की फर्ज़ी कंपनी के साथ डील की, बड़े स्तर पर घूस का लेनदेन
कुओ तेल कांड. इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन ने 3 लाख टन शोधित तेल और 5 लाख टन हाई स्पीड डीजल की खरीद के लिए टेंडर निकाला. यह टेंडर हरीश जैन को मिला. जैन की पहुंच राजनैतिक गलियारों तक थी. इस सौदे में 9 करोड़ रुपये से ज़्यादा की हेराफेरी का आरोप लगा. जांच भी हुई. लेकिन कहा जाता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय से ही इस मामले से जुड़ी फाइलें गुम हो गईं. तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री पी सी सेठी को इस्ती़फा देना पड़ा. बाद में उन्हें फिर से मंत्री बना दिया गया.
1982 इंदिरा गांधी प्रतिभा प्रतिष्ठान, संजय गांधी निराधार योजना, स्वावलंबन योजना
1982 में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ए आर अंतुले का नाम एक घोटाले में सामने आया. उन पर आरोप यह था कि उन्होंने इंदिरा गांधी प्रतिभा प्रतिष्ठान, संजय गांधी निराधार योजना, स्वावलंबन योजना आदि ट्रस्ट के लिए पैसा इकट्ठा किया था. जो लोग, खासकर बड़े व्यापारी या मिल मालिक ट्रस्ट को पैसा देते थे, उन्हें सीमेंट का कोटा दिया जाता था. ऐसे लोगों के लिए नियम-क़ानून में ढील दे दी जाती थी. ऐसे लोगों के लिए नियम-क़ानून का कोई मतलब नहीं होता था. इस मामले में मुख्यमंत्री पद से ए आर अंतुले को हटना पड़ा
बोफोर्स. 1986 में स्वीडन की ए बी बोफोर्स कंपनी
इस दशक के सबसे हाई प्रोफाइल घोटाले से लोगों का परिचय हुआ. बोफोर्स. 1986 में स्वीडन की ए बी बोफोर्स कंपनी से 155 तोपें खरीदने का सौदा तय किया गया. कहा गया कि इस सौदे को पाने के लिए 64 करोड़ रुपये की दलाली दी गई थी. ओटावियो क्वात्रोची और राजीव गांधी का नाम इसमें सामने आया. सीबीआई को जांच भी सौंपी गई, लेकिन अंतिम परिणाम अब तक सामने नहीं आ सका है. उल्टे सीबीआई ने कोर्ट में अर्जी लगाकर इस मामले को बंद करने की गुहार भी लगाई. हालांकि इसमें रक्षा राज्यमंत्री अरुण सिंह को इस्ती़फा देना पड़ा. यह दशक इसलिए भी चर्चा में रहा कि घोटाला पैदा करने के लिए भी घोटाला किया गया. मसलन, सेंट किट्स धोखाधड़ी. इस मामले में वी पी सिंह की साफ छवि को धूमिल करने के लिए नरसिम्हाराव ने एक षड्यंत्र रचा. उस वक्त नरसिम्हाराव विदेश मंत्री थे. उन्होंने वी पी सिंह पर अवैध पैसा लेने का आरोप लगवाया. बाद में पता चला कि जिन दस्तावेजों के सहारे वी पी सिंह को फंसाने की कोशिश की गई थी, उन पर अंग्रेजी में हस्ताक्षर थे, जबकि सच्चाई यह थी कि वी पी सिंह किसी भी सरकारी दस्तावेज पर अंग्रेजी में हस्ताक्षर नहीं करते थे. नतीजतन, वी पी सिंह इस मामले में निर्दोष साबित हुए.
घोटालों की यह सूची अभी और लंबी है. जिसकी बात फिर कभी, लेकिन इन घोटालों को देखने-पढ़ने के बाद यह सवाल भी उठता है कि आ़िखर इस कैंसर को खत्म करने के लिए क्या कोई क़दम भी उठाया गया. भारत में समय-समय पर भ्रष्टाचार को रोकने के लिए नियम और संस्थाएं बनती आई हैं. इसी वजह से सीबीआई और सीवीसी का गठन हुआ, लेकिन ये दोनों ही अपने मक़सद में नाकाम हैं. अलग-अलग कारणों से. आज तक के इतिहास में सीबीआई को अलग-अलग राजनैतिक पार्टियों ने बस इधर-उधर अपने विरोधियों के पीछे ही दौड़ाया है. ऐसा आरोप शुरू से सीबीआई पर विपक्षी लगाते रहे हैं. और सीवीसी को कोई अधिकार ही नहीं है. स्थिति यह हो गई है कि देश के प्रधानमंत्री इतने मजबूर और कमज़ोर हो गए हैं कि वह अपने ही मंत्रिमंडल के लोगों पर नकेल नहीं कस पा रहे. सरकार बचाना साख बचाने से ऊपर हो गया है. प्रधानमंत्री संसद से लेकर मीडिया तक कठघरे में खड़े किए गए, लेकिन फिर भी सरकार को सुध नहीं आई. सीवीसी पी जे थॉमस ने तो हद कर दी, लेकिन सरकार फिर भी कुछ नहीं कर पाई. आ़खिर क्यों? कहां गए लाल बहादुर शास्त्री और वी पी सिंह जैसे नेता, जो जनता के हित में अपनी कुर्सी तक छोड़ देते थे? कहां गए वे दिन, जब राजनीति घोटालेबाज़ों का गढ़ न होकर सम्मानित लोगों के लिए जनता की सेवा करने का एक ज़रिया था? पढ़िये भाग -3
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