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Friday, February 11, 2011

0 SCAM- आजाद भारत के महान घोटाले - Part -1

आजाद भारत के महान घोटाले भाग -1

1948   जीप घोटाला, आज़ाद भारत का पहला घोटाला
जीप घोटाला आज़ाद हिंदुस्तान का पहला घोटाला था. देश अभी आज़ादी के बाद कश्मीर मसले पर पाकिस्तान से दो-दो हाथ कर चुका था. तब वी के मेनन ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त थे. पाकिस्तानी हमले के बाद भारतीय सेना को क़रीब 4603 जीपों की जरूरत थी. मेनन इस सौदे में कूद पड़े. उनके कहने पर रक्षा मंत्रालय ने उस वक्त 300 पाउंड प्रति जीप के हिसाब से 1500 जीपों का आदेश दे दिया, लेकिन 9 महीने तक जीपें नहीं आईं. 1949 में जाकर महज 155 जीपें मद्रास बंदरगाह पर पहुंचीं. इनमें से ज्यादातर जीपें तय मानक पर खरी नहीं उतरीं. जांच हुई तो मेनन दोषी पाए गए, लेकिन कार्रवाई के नाम पर कुछ नहीं हुआ. आगे चलकर उन्हें रक्षा मंत्री भी बनाया गया. ज़ाहिर है, जीप घोटाले ने भारत को घोटालों के देश में तब्दील करने के लिए बीजारोपण तो कर ही दिया था, क्योंकि इससे यह साबित हुआ कि आप भले ही घोटाले कर लो, लेकिन सत्ता पक्ष का समर्थन आपके पास है तो आपको कुछ नहीं होगा. इसमें बाद में कुछ भी नहीं हुआ

अब जीप के बाद बारी थी साइकिल की, जो साइकिल इंपोट्‌र्स घोटाले के रूप में सामने आई. 1951 में वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के सचिव एस ए वेंकटरमण थे. ग़लत तरीक़े से एक कंपनी को साइकिल आयात करने का कोटा जारी करने का आरोप लगा. इसके बदले उन्होंने रिश्वत भी ली. इस मामले में उन्हें जेल भी भेजा गया. लेकिन ऐसा भी नहीं था कि हर मामले में आरोपी को जेल भेजा ही गया.

1951   साइकिल घोटाला, वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के सचिव फंसे
साइकिल घोटाले के 6 साल बाद यानी 1956 में यह खबर आई कि उड़ीसा के कुछ नेता व्यापारियों के काम कराने के बदले उनसे दलाली ले रहे थे. जब इस संबंध में छापेमारी हुई. पूर्वी भारत के एक बड़े व्यवसायी मुहम्मद सिराजुद्दीन एंड कंपनी के कोलकाता और उड़ीसा स्थित दफ्तरों में भी छापेमारी हुई. पता चला कि सिराजुद्दीन कई खानों का मालिक है और उसके पास से एक ऐसी डायरी मिली, जिससे साबित हो रहा था कि उसके संबंध कई जाने-माने राजनेताओं से थे. लेकिन इस संबंध में कोई कार्रवाई नहीं हुई. कुछ समय बाद जब यह खबर मीडिया के हाथ लगी और छपने लगी, तब तत्कालीन खान और ईंधन मंत्री केशव देव मालवीय ने यह स्वीकार किया कि उन्होंने उड़ीसा के एक खान मालिक से 10,000 रुपये की दलाली ली थी. बाद में नेहरू के दबाव में मालवीय को इस्ती़फा देना पड़ा.

1956   बीएचयू फंड घोटाला, आज़ाद भारत का पहला शैक्षणिक घोटाला

1958   मूंध्रा घोटाला, फिरोज गांधी ने किया खुलासा, फंसे वित्त मंत्री
मूंध्रा कांड. 1957 में फिरोज गांधी ने एक सनसनीखेज कांड का खुलासा कर संसद को हिला दिया. उन्होंने बताया कि उद्योगपति हरिदास मूंध्रा की कई कंपनियों को मदद पहुंचाने के लिए उनके शेयर भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) द्वारा 1.25 करोड़ रुपये में खरीदवाए गए. निगम द्वारा शेयरों की बढ़ी हुई कीमत दी गई. जांच हुई तो उस मामले में वित्त मंत्री टी टी कृष्णामाचारी, वित्त सचिव एच एम पटेल और भारतीय जीवन बीमा निगम के अध्यक्ष दोषी पाए गए. मूंध्रा पर 160 करोड़ रुपये के घोटाले का आरोप था. 180 अपराधों के मामले थे. दबाव बढ़ा तो वित्त मंत्री को पद से हटा दिया गया. मूंध्रा को 22 साल की सजा मिली. कृष्णामाचारी को तो उनके पद से हटा दिया गया,

1963   आज़ाद भारत में मुख्यमंत्री पद के दुरुपयोग का पहला मामला, आरोप प्रताप सिंह कैरों (पंजाब)
 प्रताप सिंह कैरों के मामले में सरकार ने ऐसी तेज़ी नहीं दिखाई. 1963 में पंजाब के मुख्यमंत्री सरदार प्रताप सिंह कैरों के खिला़फ कांग्रेसी नेता प्रबोध चंद्र ने आरोपपत्र पेश किया. आरोपपत्र में ये बातें शामिल थीं कि पंजाब के मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों ने मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए अनाप-शनाप धन-संपत्ति जमा किया. इसमें उनके परिवारीजन शामिल थे. मसलन, अमृतसर कोऑपरेटिव कोल्ड स्टोरेज लि., प्रकाश सिनेमा, कैरों ब्रिक सोसायटी, मुकुट हाउस, नेशनल मोटर्स अमृतसर, नीलम सिनेमा चंडीगढ़, कैपिटल सिनेमा जैसी संपत्तियों पर प्रताप सिंह कैरों के रिश्तेदारों का मालिकाना हक़ था. जब जांच हुई तो रिपोर्ट में कहा गया कि कैरों के पुत्र एवं पत्नी ने पैसा कमाया है. लेकिन इस सब के लिए प्रताप सिंह कैरों को सा़फ-सा़फ बरी कर दिया गया. कैरों तो बच गए

1965   उड़ीसा के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक पर अपनी ही कंपनी को फायदा पहुंचाने का आरोप
 मुख्यमंत्री बीजू पटनायक अपनी कुर्सी नहीं बचा पाए. उड़ीसा के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक पर यह आरोप लगा कि उन्होंने अपनी ही एक निजी कंपनी कलिंगा ट्यूब्स को एक सरकारी ठेका दिया. इस आरोप के बाद उन्हें इस्ती़फा देने पर मजबूर होना प़डा.


घोटालों की यह सूची अभी और लंबी है. जिसकी बात फिर कभी, लेकिन इन घोटालों को देखने-पढ़ने के बाद यह सवाल भी उठता है कि आ़िखर इस कैंसर को खत्म करने के लिए क्या कोई क़दम भी उठाया गया. भारत में समय-समय पर भ्रष्टाचार को रोकने के लिए नियम और संस्थाएं बनती आई हैं. इसी वजह से सीबीआई और सीवीसी का गठन हुआ, लेकिन ये दोनों ही अपने मक़सद में नाकाम हैं. अलग-अलग कारणों से. आज तक के इतिहास में सीबीआई को अलग-अलग राजनैतिक पार्टियों ने बस इधर-उधर अपने विरोधियों के पीछे ही दौड़ाया है. ऐसा आरोप शुरू से सीबीआई पर विपक्षी लगाते रहे हैं. और सीवीसी को कोई अधिकार ही नहीं है. स्थिति यह हो गई है कि देश के प्रधानमंत्री इतने मजबूर और कमज़ोर हो गए हैं कि वह अपने ही मंत्रिमंडल के लोगों पर नकेल नहीं कस पा रहे. सरकार बचाना साख बचाने से ऊपर हो गया है. प्रधानमंत्री संसद से लेकर मीडिया तक कठघरे में खड़े किए गए, लेकिन फिर भी सरकार को सुध नहीं आई. सीवीसी पी जे थॉमस ने तो हद कर दी, लेकिन सरकार फिर भी कुछ नहीं कर पाई. आ़खिर क्यों? कहां गए लाल बहादुर शास्त्री और वी पी सिंह जैसे नेता, जो जनता के हित में अपनी कुर्सी तक छोड़ देते थे? कहां गए वे दिन, जब राजनीति घोटालेबाज़ों का गढ़ न होकर सम्मानित लोगों के लिए जनता की सेवा करने का एक ज़रिया था?                                              पढ़िये भाग -2

Writer-सिद्धार्थ राय-courtesy chauthidunia

 

 



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