2जी के 122 लाइसेंसों को रद्द करने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला हर मायने में अभूतपूर्व है। अभूतपूर्व इसलिए, क्योंकि इससे पहले कभी देश की शीर्ष अदालत ने लोकहित के ऐसे मामले में इतना साफ, कठोर, सटीक और निर्णायक फैसला नहीं दिया।
एक दशक पहले की बात करते हैं। उस समय भी सरकार ने लिमिटेड मोबिलिटी लाइसेंस दान में बांट दिए थे। सरकार ने कंपनियों को मोबिलिटी का इस्तेमाल चालाकी से करने की छूट दे दी। उसे उम्मीद थी कि लोग इतनी बड़ी तादाद में इसका इस्तेमाल करेंगे कि कोर्ट लोकहित को देखते हुए उसे रद्द कर ही नहीं पाएगा। जमीनों के दुरुपयोग के मामले में भी यही होता रहा है। इसलिए कोर्ट समान्यत: जुर्माना लगाकर इसे वैधता दे देता है। इस बार कुछ अलग था तो वह था 2जी केस में तीसरे पक्ष यानी जनसमान्य का बहुत ज्यादा इंटरेस्ट। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने जो भी किया वह कल्पना से परे है। इस फैसले से सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर इस तथ्य को स्थापित कर दिया है कि वह देश में प्रजातंत्र का सबसे मजबूत स्तंभ है।
अगर यह बात करें कि लाइसेंस रद्द होने के फैसले का सरकार और कॉर्पोरेट सेक्टर पर क्या असर पड़ेगा, तो उसका जवाब होगा कि उन्हें जोरदार झटका लगा है। सरकार के सामने तो बहुत सारी समस्याएं खड़ी हो गई हैं, मसलन अब वह इन लाइसेंसों का क्या करेगी? किसके पास इन सर्विसेज को देने के लिए कानून सम्मत लाइसेंस हैं? इन सवालों के जवाब सरकार ने ढूंढ भी लिए तो वह विदेशी निवेशकों के सामने अचानक हुए बदलाव को कैसे सही ठहरा पाएगी? सवाल यह भी है कि बैंकिंग सिस्टम में खप चुकी इतनी बड़ी राशि का क्या होगा। और फिर बैंकिंग सेक्टर पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इन 122 लाइसेंसों से मिलने वाली सर्विसेज से लाखों सब्सक्राइबर्स जुड़े हैं, सरकार उनका क्या करेगी? अंत में यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इसके परिमाणस्वरूप मुकदमों की बाढ़ भी आ सकती है।
अदालत का ऐसा सख्त फैसला दिखाता है कि सरकार अपना आचरण, अपनी क्षमता खो चुकी है। अदालत इस बात पर सहमत हुई है कि मामला इतना संदेहास्पद था कि उसे ऐसा कठोर कदम उठाना पड़ा। और, यह घालमेल किसकी वजह से पैदा हुआ? यह कहना तो बचपना होगा कि इसके लिए सिर्फ ए. राजा जिम्मेदार हैं। और ऐसा लगता है कि कोर्ट ने भी उस ओर इशारा कर दिया है। यानी चिदंबरम को यह समझ जाना चाहिए कि वह उधार के वक्त पर चल रहे हैं।
विपक्ष को भी किसी जीत का दावा करने की जरूरत नहीं है। अगर कोई सही तरीके से संगठित होता तो अब तक तो सत्ता में खलबली मचा चुका होता। लेकिन इस घोटाले के अलग-अलग हिस्सों में सभी लोग किसी न किसी तरह से शामिल रहे हैं, इसलिए विरोध के नाम पर सुबुगाहट से ज्यादा कभी कुछ नहीं हुआ। अदालत में जो कुछ हुआ है उसका पूरा श्रेय विद्रोही सुब्रमण्यम स्वामी और सामाजिक कार्यकर्ता व वकील प्रशांत भूषण की कोशिशों को जाता है।
अब हमें इतंजार इस बात का है कि सरकार इन सारे मुद्दों पर करती क्या है। और हां, इस बात का भी इंतजार रहेगा कि जिनके चेहरे अब तक छिपे रहे हैं, वे उघाड़े जाएंगे या नहीं।
यह सरकार तो मुद्दों को थाली में सजाकर अपने विरोधियों के सामने पेश कर रही है। कॉमनवेल्थ घोटाला, सीवीसी की नियुक्ति, आदर्श हाउसिंग स्कैम, जनरल वी.के. सिंह की रिटायरमेंट का मामला, इसरो के वैज्ञानिकों का विवाद...। इस हिसाब से देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सरकार के ताबूत में अहम कील साबित होगा। मैं अब भी इसे आखिरी कील नहीं कह रहा हूं। लेकिन, क्या अब भी किस��� को कुशासन, कुप्रबंधन और नेतृत्व के खालीपन का सबूत चाहिए? सरकार माने या न माने, उसकी विश्वसनीयता टुकड़े-टुकड़े हो चुकी है। यह बात सुप्रीम कोर्ट के फैसले में जितनी स्पष्ट कही गई है, उससे स्पष्ट नहीं कही जा सकती थी।
Courtesy Rajesh Kalara - Navbharat times
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