पीवी नरसिम्हाराव के समय की एक बात हमेशा याद आती है. दो पत्रकारों को बात करते सुना था. एक ने दूसरे से कहा कि उसने शेयर बाज़ार घोटाले के एक आरोपी को प्रधानमंत्री के पास चार करोड़ रुपये ले जाते देखा था. दूसरे ने तपाक से कहा कि उसे विश्वास नहीं होता, क्योंकि प्रधानमंत्री इतनी छोटी रकम पर तो छींक भी नहीं मारेंगे. मुझे याद है कि इस बातचीत पर मुझे गुस्सा नहीं, बल्कि हंसी आई थी. आज हम उस समय से बहुत आगे आ गए हैं. हम सभी को याद है कि किस तरह राव सरकार के समय झारखंड मुक्ति मोर्चा के वोटों को भारी-भरकम रकम देकर ख़रीदा गया था.
अब आज के विकीलीक्स को देखें. आज एक सांसद की क़ीमत कुछ करोड़ से बढ़कर दस और बीस करोड़ रुपये हो गई है. अमर सिंह, जो कि इस पूरे मामले में भीतर के आदमी थे, ने कहा है कि इसमें एक सांसद की क़ीमत दस नहीं, बल्कि बीस करोड़ रुपये थी. मुझे उनकी इस बात पर पूरा विश्वास है. आज क्या क़ीमत है, यह सोचने का विषय है. क्या बिकने की क़ीमतों ने महंगाई के साथ अपने क़दम बढ़ाए हैं या फिर बढ़े हुए एम पी फंड के साथ, जिसे वित्त मंत्री ने बहुत ही उदारता के साथ बढ़ाया है? वैसे अगली अर्थव्यवस्था के सर्वे में इस बात का भी ख़ुलासा होना चाहिए कि घूसखोरी की वजह से राजनीतिक जीवन कितना फायदेमंद हो गया है. मुझे लगता है कि इसमें अर्जित होने वाला फायदा अर्थव्यवस्था के बाक़ी किसी भी क्षेत्र से अधिक ही निकलेगा. जिस तरह से राजनीतिक दलों के पास पैसा आता है, वह काले धन की खुली कहानी है. लेकिन इसे कुछ अर्थशास्त्रीय तर्कों से देखा जा सकता है कि आख़िर मामला है क्या? राजनीति कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जहां प्रतिस्पर्धा साफ़-पाक होती है. अल्पाधिकार यहां का नियम है. बड़ी पार्टी चलाने के लिए बहुत सारे धन और बहुत सारे संसाधनों की जरूरत होती है. कांग्रेस ने तो बहुत ही कम शुल्क पर सदस्यता देने का चलन शुरू किया था, लेकिन इस धन से पार्टी नहीं चल सकती. बहुत ही कम राजनीतिक कंपनियों (पार्टियों) में ही स्पर्धा होती है. उनमें एंट्री बहुत ही कठिन और महंगी होती है. आप क्षेत्रीय जातीय पार्टियां भी बना सकते हैं, जैसे कि आरएलडी या आरजेडी. आपको बस चाहिए एक सधा हुआ वोट बैंक. जैसे ही आपके पास दो या तीन एमपी आए नहीं कि आपका धंधा चल निकलता है.
एक एमपी होने का फायदा आपके निकट संबंधियों और आपके परिवार को मिलता है, जो कि तमिलनाडु के एम करुणानिधि के मामले में कई पत्नियों के बहुत से बच्चों को भी मिलता है. लेकिन अगर आपने बाहरी लोगों को शामिल किया तो लेने के देने पड़ सकते हैं. शायद ए राजा का उदाहरण फिर कभी नहीं दोहराया जाएगा. कभीकभार ऐसा भी हो सकता है कि कोई बड़ा पूंजीपति पार्टी को बहुत सारा पैसा दे दे, ताकि उसे राज्यसभा का टिकट मिल जाए. ऐसा अभी भाजपा के एक मुख्यमंत्री को सरेआम कहते देखा गया, लेकिन हर बार की तरह उनकी बात को दूसरे अर्थों में लिया गया. बड़ी पार्टियों को बार-बार केंद्र या राज्यों में सत्ता जीतनी पड़ती है, ताकि पार्टी चलती रहे. लेकिन जब वे सत्तासीन हो जाती हैं तो उन्हें लूट का पैसा गठबंधन के उन सदस्यों के साथ बांटना पड़ता है, जो एटीएम मंत्रालयों की मांग करते हैं. लेकिन इतना कुछ होता है कि छोटी पार्टियों के एमपी, जो गठबंधन से बाहर होते हैं, को भी पटाया जा सकता है. इस तरह से एक पूरा राजनीतिक तंत्र ही काले धन को पैदा करता है और वितरित भी. यह सारा नगद पैसा होता है, जिस पर मुस्कराते हुए राष्ट्रपिता की तस्वीर होती है. आख़िर उन्हें याद करने का इससे बेहतर तरीक़ा तो हो ही नहीं सकता.
वैसे यह धन आता कहां से है? बड़े-बड़े उद्योगपतियों से लाइसेंस और परमिट की एवज़ में पैसा लेने की प्रथा तब शुरू हुई थी, जब इंदिरा गांधी ने अर्थव्यवस्था की कमान पूरी तरह से राज्य के अंतर्गत कर ली थी. समाजवाद तो भारत की राजनीति का जीवन था, लेकिन देश में एक ही पार्टी का एकाधिकार था. कांग्रेस की हार के बाद दूसरी पार्टियों ने भी इस प्रथा को बिना व़क्त गंवाए सीख लिया. भाजपा गठबंधन की तहलका मामले में हुई किरकिरी कौन भुला सकता है. तब तक आर्थिक उदारवाद ने लाइसेंस और परमिट की क़ीमतें तो और बढ़ा दी थीं. यहां काम कर रहा था वह समाजवाद, जो भारतीयता से ओतप्रोत था. भारत को मास्को के सोने या अमेरिका के डॉलरों की ज़रूरत नहीं है. भारत के पास अपना अलग और बहुत बड़ा धन का खज़ाना है, जिस पर देश का अद्वितीय राजतंत्र चल रहा है. अमर सिंह ने सही कहा.
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