Fact of life!

एवरीथिंग इज प्री-रिटन’ इन लाईफ़ (जिन्दगी मे सब कुछ पह्ले से ही तय होता है)।
Everything is Pre-written in Life..
Change Text Size
+ + + + +

Friday, October 22, 2010

0 शांति रास नहीं आ रही है राजनीतिक दलों को

इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा अयोध्या मामले में फैसला दिये हुये अभी चन्द दिन ही गुजरे हैं और तरह-तरह की बाजी जैसे कबूतरबाजी, घोटालेबाजी में महारत हासिल किये कुछ राजतीतिक दलों ने पुनः इस मामले को लेकर अपने-अपने पासे फेंकने शुरू कर दिये हैं। कोई अपने को मुस्लिमों का मसीहा साबित करने के वास्ते न्यायालय के निर्णय पर उंगली उठा रहा है तो कोई उनकी पूरी हिफाजत की सौगात दे रहा है और किसी के द्वारा वहां अब भव्य मंदिर निर्माण की तैयारी करने की बात कही जा रही है। सर्वविदित है कि बहुत सारे नेता तो बाबरी मस्जिद-राममंदिर प्रकरण को रंग-रोगन देकर ही चमके थे। इनमें से कई नेता आज की तारीख में हाशिए पर हैं, वे राजनीति की मुख्यधारा में आने के लिए छटपटा रहे हैं, किन्तु गिरगिट की भांति रंग बदलने वाले इन राजनीतिक आकाओं की बातों पर जनता कोई खास तवज्जो नहीं दे रही है, अलबत्ता लोग यह जरुर कह रहें है कि अब और रोटियां नही सिकने देगी जनता।
ज्यादातर लोग चाहे वो हिन्दू हो या मुसलमान फैसले को परिपक्व एवं न्यायसंगत फैसला ही बता रहे हैं, लोगों का मानना है कि न्यायालय के फैसले में भावनाओं का भी ध्यान रखा गया है तथा पात्रता के अनुरूप स्थानों का आवंटन भी किया गया है, जिसके कारण ज्यादातर लोगों ने इस फैसले को आत्मसात ही किया है। हालांकि कुछ लोग इस प्रकरण को देश के सर्वोच्च न्यायालय तक ले जाने की बात भी कर रहें हैं। इसका सीधा-सा अर्थ है कि उन्हें फैसला मान्य नहीं है। कम्युनिस्टों ने भी फैसले को एकपक्षीय बताया है।
वैसे तो कांग्रेस, राजद जैसी पार्टियां भी दबी जुबान से ही फैसले को स्वीकार रही हैं। कुल मिलाकर देश की जनता ने फैसले का स्वागत किया है और बड़े ही सूझ-बूझ के साथ आपसी सौहार्द भी बनाये रखा है, बावजूद इसके इस मामले की चौसर पर बड़े राजनीतिक दल अपने-अपने पासे फेंक रहे हैं और बहुसंख्यक जनता इस फैसले में न्यायाधीशों की सूझबूझ बता रही है। चूंकि कहीं भी कोई घटना नहीं  हो पायी, जिसकी आम लोगों को आशंका थी। खासकर युवा वर्ग अब इस प्रकरण पर विराम चाहता है। आज देश की आधे से ज्यादा आबादी युवाओं की है, जिनमें से बड़ी संख्या ऐसे युवाओं की है, जो उन्माद के उस दौर के बाद पैदा हुए हैं, जिसने देश की सांस्कृतिक और धार्मिक ताने-बाने को खासा नुकसान पहुंचाया था। इन युवाओं के अपने सपने हैं, उन्हें अब धर्म या मजहब के नाम पर बरगलाया नहीं जा सकता। कुछ लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि जो लोग अब इस मामले को तूल दे रहे हैं वे किसी राजनीतिक दल के इशारे एवं लालच के कारण ऐसा कर रहे हैं।
खैर! मेरा तो यही सबसे अनुरोध है कि बिना विचार किए ऐसा कोई कदम न उठाये जो अमन चैन को खराब करे, पूर्व के अनुभव तो यही इशारा करते हैं कि ऐसे स्वार्थी तत्व आपको आग में धकेलकर वोटों की रोटियां सेंक जाएंगे। यही व्यवहार धर्म के ठेकेदारों भी का होगा। भले ही आज चीख-चीखकर कह रहे हैं कि हम फैसले का स्वागत करते हैं। एक सच्‍चाई यह भी जेहन में रहना चाहिए कि पिछले साठ साल में मेरे-आप जैसे न जाने कितने मारे गये, कितने बच्चे अनाथ हो गये, कितनी अबलाओं की मांग सूनी हो गयी। हम आप क्या कर पाए?
इस फैसले ने कम से कम राम-रहीम को एक मानकर साथ बैठने का रास्ता तो खोला। ये दीवारें हमारे साथ तो दफन नहीं होने की, सच तो यह है कि इनके नीचे कौन दफन है, हमें भी नहीं मालूम। किसके लिए हम राम-रहीम को लड़ा रहे हैं, कौन-सी संस्कृति हम बच्चों को विरासत में दे जाना चाहते हैं, या यूं कहें कि हम तय कर चुके हैं कि आरक्षण मामले की तरह इस मामले के माध्यम से हम भी देश को एक नहीं रहने देंगे? राम-रहीम के नाम पर राजनीति की रोटियां सेंकने वालों कम से कम फैसला आने के बाद तो लाशों पर राजनीति करने का मंसूबा बदलो। अरे कम से कम इन देशवासियों की भावनाओं का कुछ तो सम्मान करो, जिन्होंने पूरी तरह से सब्र का परिचय देते हुये, आपसी एकता व अखण्डता की मिसाल पेश करते हुये, मौन रहकर इस फैसले को आत्मसात किया है।
लेखक रिजवान चंचल रेड फाइल के संपादक

0 comments:

Post a Comment

अपनी बहुमूल्य टिपण्णी देना न भूले- धन्यवाद!!