सब पर नजर रखने वाले जासूस पर नजर रखना आसान काम नहीं है। इस मुश्किल काम को अंजाम देते हैं प्रति गुप्तचर। इस जोखिम भरे पेशे की चुनौतियों पर एक नजर-
जासूसी का सबसे बेहतर और चुनौती भरा काम है जवाबी जासूसी, जिसे प्रतिगुप्तचरी या काउंटर एस्पियानेज भी कहते हैं। दुश्मन के जासूस को पहचान कर मौत के घाट उतारना, अपने जासूस पर चुपके से नजर रखना, गद्दार होने की स्थिति में वापस बुलाकर खत्म करना, बंदी बनाना या फिर विदेश में ही मार डालना आदि सब काम इसी का हिस्सा हैं। लिहाजा जासूस पर जासूसी को ही प्रति गुप्तचरी कहा जाता है।
प्रति गुप्तचरी या जवाबी जासूसी में कौन सी खास बात है? एक पेशेवर जासूस को पकड़ना लोहे के चने चबाने के बराबर है। वह इसलिए कि एक जासूस को न पकड़े जाने की ट्रेनिंग दी जाती है। फिर उसे यह भी मालूम होता है कि पकड़े जाने पर क्या करना है। माताहारी की याद है आपको? प्रथम विश्व युद्ध की यह जर्मन जासूस पकड़ी गई थी और उसे सजा-ए-मौत मिली थी। उस समय संचार के इतने माध्यम नहीं थे। लेकिन आज किसी जासूस को मय सबूत के गिरफ्तार करना आसान नहीं है। उस पर लंबे अर्से तक नजर रखनी पड़ती है। फिर उसके संचार माध्यम की छानबीन करनी पड़ती है। फिर ऐसे सबूत जुटाने पड़ते हैं, जो शक के दायरे से पूरी तरह बाहर हों। तब ही जाकर किसी जासूस को पकड़ा जा सकता है। तब तक दोनों पक्षों के बीच एक लुकाछिपी का खेल चलता रहता है। जरा सा भी शुबहा होने पर कई दिन की मेहनत पर पानी फिर सकता है। दुश्मन सारे सबूत खत्म कर देश से गायब हो सकता है और प्रति जासूस को बेबसी में हाथ मलते रहना पड़ सकता है।
इतने तक भी गनीमत है। कभी-कभी प्रति जासूस को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ सकता है। अप्रैल 1956 में ब्रिटिश नौसेना के गोताखोर जासूस कमांडर क्रैब के साथ ऐसा ही हुआ। उस समय सोवियत संघ से ख्रुश्चेव और बुल्गानिन ब्रिटेन यात्रा पर थे। उनका जहाज 'ओर्दोनिकित्जे' पोर्ट्समाउथ बंदरगाह में था। यह जहाज ब्रिटिश गुप्तचर सेवा एम आई 5 के राडार पर था। सारे रूसी भी शक के दायरे में थे। वजह सिर्फ इतनी थी कि उस जहाज की स्पीड कुछ ज्यादा ही थी। ख्रुश्चेव और बुल्गानिन के लंदन स्थित निवास के कमरे की इलेक्ट्रॉनिक तलाशी में कुछ भी नहीं मिला। एम आई 5 के अफसरान ने क्रैब को उस जहाज के प्रॉपेलर को नापने का काम सौंपा। पता नहीं कैसे ये खबर लीक होकर अखबारी सुर्खियों में तब्दील हो गई। तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री एंथोनी ईडन ने मामले को दबाना चाहा। लेकिन ख्रुश्चेव ने खुले आम जहाज के साथ हुई छेड़छाड़ की बात कही, जिससे अखबारों को और भी मसाला मिला। बाद में ब्रिटिश तट से कुछ दूर एक शव तैरता हुआ पाया गया, जिसका सिर नदारद था। माना गया है कि यह लाश कमांडर क्रैब की थी।
यह पहला मौका नहीं था जब जासूसी के मामले में रूसियों ने अंग्रेजों को नाकों चने चबवाए। ऐसा कई बार हुआ। 1956 में एम आई 5 को शक हुआ कि लंदन स्थित मिस्री दूतावास से रूसियों को जानकारियां पहुंचती हैं। उन्होंने बातें सुनने के इलेक्ट्रॉनिक उपकरण वहां लगा दिए। फिर एक रूसी दल ने जब वहां की इलेक्ट्रॉनिक सफाई की, तो वे उपकरण पकड़ में आ गए। लेकिन रूसियों ने उन्हें बिना छेड़छाड़ किए ज्यों का त्यों रहने दिया। फिर उन्हीं का इस्तेमाल अंग्रेजों तक भ्रामक बातें पहुंचाने के लिए किया। असली जानकारी मास्को से लंदन के रूसी दूतावास आकर बजरिये संदेशवाहक मिस्र तक पहुंचती थी। एम आई 5 के अधिकारी इस बात पर हैरान थे कि रूसी जासूस को पकड़ने की कोशिशें अक्सर नाकाम हो जाया करती हैं। ऐसा किसलिए? जाहिर था कि एम आई 5 में रूसी घुसपैठ हुई थी। किसी भी ऑपरेशन की खबर रूसियों तक तुरंत पहुंच जाती थी। बाद में एक भगोड़े रूसी एजेंट ने इस बात की पुष्टि की कि रूसी एम आई 5 में 1946 में ही सेंध लगा चुके थे।
अप्रैल 1959 में हैरी रोमन नामक एक उच्चाधिकारी ने एम आई 5 व 6 को चेताया कि दो लोग ब्रिटेन में रूसियों के लिए जासूसी कर रहे हैं। उनमें से एक सीक्रेट सर्विस में और दूसरा नौसेना में है। इस बात से चौकन्ने हुए ब्रिटिश प्रति गुप्तचर के शक की सुई जॉर्ज ब्लैक नामक एक अफसर पर टिकी। एम आई 6 के इस अधिकारी को लैम्बडा1 के कूटनाम से जाना जाता था। इसी ने सीआईए और एम आई 5 के संयुक्त उपक्रम बर्लिन सुरंग की जानकारी रूसियों को दी थी। 1960 में उसे गिरफ्तार कर लिया गया। 1961 में उसे सजा भी हो गई और तभी यह बात पता चली कि रूसियों ने उसे छात्र जीवन में ही जासूसी के लिए भर्ती कर लिया था!
फिर अंग्रेज जासूस का ध्यान नौसेना की ओर गया। इस बार संदेह के बादल समुद्री शस्र निर्माण से संबद्ध हैरी हॉटन पर मंडराए। उस पर नजर रखी जाने लगी। 1960 में उसे एक एकांत स्थान पर एक व्यक्ति को एक बैग देकर एक लिफाफा लेते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया। हॉटन का दूसरी जगह तबादला कर दिया गया। लिफाफा देने वाला व्यक्ति था कनाडा का एक व्यापारी गॉर्डन ऑर्नाल्ड लॉसडेल। अब एम आई 5 ने उस पर नजर रखनी शुरू कर दी। सितंबर 1960 के दौरान उसने एक बैंक में यह कहकर एक सूटकेस जमा कराया कि वह उसे बाद में आकर ले जाएगा। एम आई 5 के एजेंटों ने जब उसे खोलकर देखा तो उसमें निकला जासूसी उपकरण का जखीरा। अब एम आई 5 ने लॉसडेल की निगरानी कड़ी कर दी। लेकिन वह भी काफी चौकस था। वह गतिशील होते हुए भी अपने ठिकाने बदलता रहता था। उसका निवास पाया गया 45, क्रैनले गार्डन लंदन। न्यूजीलैंड के दंपति पीटर व हलेन क्रोगर यहीं से पुरानी किताबों का व्यवसाय करते थे। लॉसडेल ने नवंबर 1960 में बैंक से अपना सूटकेस उठाया और दूसरा मकान ले लिया। एम आई 5 की नजर तो उस पर थी ही। उन्होंने अपने एक कम्युनिकेशन एक्सपर्ट को उसके पड़ोस में तैनात कर दिया। उसने लॉसडेल के भेजे हुए संदेश का कोड ब्रेक कर लिया। लॉसडेल की असलियत का खुलासा हो जाने के बावजूद एम आई 5 ने उसे ढील दी ताकि उसके संपर्क मालूम हो सकें। आखिरकार जनवरी 1961 में उसे गिरफ्तार कर लिया गया।
जासूसी मामलों में प्रतिगुप्तचरी विभाग एक अजीब स्थिति में होता है। जब दुश्मन का जासूस पकड़ा जाता है तो विभाग की निगरानी को कमजोर बता कर उस पर लानत भेजी जाती है। और यदि वह बच निकलता है तो भी निगरानी को कमजोर बताया जाता है। यानी दोनों सूरतों में इल्जाम का ठीकरा इसी विभाग के सिर फू टता है।
शक प्रति गुप्तचरी की जान है लेकिन बहुत ज्यादा शक उसकी मौत है। इसका जबर्दस्त नमूना पेश किया है सीआईए के काउंटर एस्पियॉनेज चीफ जेम्स एंगलटन ने। उन्होंने रूस के साथ काम करने वाले अमरीकी जासूस का पर्दाफाश तो किया लेकिन उन्हें जबर्दस्त झटका लगा जब उनके खास दोस्त किम फिल्बी रूसी भेदिए निकले जो बाद में रूस में ही जा बसे। यह धोखा खाने के बाद एंगलटन मानसिक तौर पर खिसक से गए। एक रूसी भगोड़े यूरी नोसेंको को एंगलटन ने पूरे तीन साल तक अमानवीय यंत्रणाएं दीं। ये बात अखबारों में आ गई। आखिर नोसेंको को मुक्ति मिली और एंगलटन को बदनामी। वे पुराने वफादार सहकर्मियों पर भी शक करने लगे। इस से परेशान होकर कई लोगों ने सीआईए छोड़ दी। सीआईए के तत्कालीन निदेशक विलियम कोल्बी भी उसके शक के दायरे में आ गए। दोनों में जबर्दस्त झगड़ा भी हुआ। फिर एंगलटन के पास सिवा इस्तीफा देने के कोई चारा नहीं था।
जो जाल में फंसे
-एमिस सीआईए में काउंटर इंटेलिजेंस ऑफिसर के तौर पर काम करता था। अपने पहले जासूसी असाइनमेंट के तौर पर उसे अंकारा, टर्की भेजा गया था। लेकिन वहां अपनी नशे की आदत और खर्चीलेपन के कारण उसने 1985 से सोवियत यूनियन को सूचनाएं देनी शुरू कर दीं थीं। 1994 में उसे धर दबोचा गया।
-द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापान में काम कर रहे रिचर्ड सोर्जे सोवियत यूनियन के बेस्ट जासूसों में से एक माने जाते हैं। वे बतौर जर्नलिस्ट जासूसी करते रहे। उन्हें 1933 में जापान में जासूसी जाल बिछाने के लिए भेजा गया। 1941 को उन्हें गिरफ्तार किया गया। वे अंत तक सोवियत यूनियन से अपने किसी भी तरह के संबंध को नकारते रहे। उन्हें फांसी दे दी गई।
रवींद्र दुबे
बेहद रोचक जानकारी आभार
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thanks for your valuable time
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