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Monday, August 6, 2012

0 यह तस्वीर है रियल टाइगर की, पढ़िए 'एक था टाइगर' की सच्ची कहानी

http://www.bhaskar.com/article/RAJ-JOD-this-picture-of-the-real-tiger-read-the-true-story-of%C2%A0-ek-tha-tiger-3616654.html?HF-5=


एक था टाइगर"सलमान खान अभिनीत ये फिल्म आगामी 15 अगस्त को भारत भर में रिलीज की जायेगी,अगर आपने भी इस फिल्म को देखने का प्लान बनाया है तो पहले आपको ये पोस्ट पढ़नी चाहिये ।
फोटो में दिखाया गया ये शख्स सलमान खान की तरह बहुत मशहूर तो नहीं है और शायद ही कोई इनके बारे में जानता हो या किसी से सुना हो - इनका नाम था रवीन्द्र कौशिक, ये भारत की जासूसी संस्था RAW के भूतपूर्व एजेन्ट थे। राजस्थान के श्रीगंगानगर में पले बढ़े रवीन्द्र ने 23 साल की उम्र में ग्रेजुएशन करने के बाद RAW ज्वाइन की थी ,भारत पाकिस्तान और चीन के साथ एक-एक लड़ाई लड़ चुका था और पाकिस्तान भारत के खिलाफ एक और युद्ध की तैयारी कर रहा था।

जब भारतीय सेना को इसकी भनक लगी उसने RAW के जरिये रवीन्द्र कौशिक को भारतीय जासूस बनाकर पाकिस्तान भेजा, रवीन्द्र ने नाम बदलकर यहां के एक कालेज में दाखिला लिया। यहां से वो कानून की पढ़ाई में एक बार फिर ग्रेजुएट हुए और उर्दू सीखी और बाद में पाकिस्तानी सेना में जासूसी के लिये भर्ती हो गये। कमाल की बात है पाकिस्तान को कानों कान खबर नहीं हुई कि उसकी सेना में भारत का एक एजेँट है !

रवीन्द्र ने 30 साल अपने घर से दूर रहकर देश की खातिर खतरनाक परिस्थितियों के बीच पाकिस्तानी सेना में बिताए।

इसकी बताई जानकारियोँ के बलबूते पर भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ हर मोर्चे पर रणनीति तैयार की।

पाकिस्तान तो भारत के खिलाफ कारगिल युद्ध से काफी पहले ही युद्ध छेड़ देता पर रवीन्द्र के रहते ये संभव ना हो पाया केवल एक आदमी ने पाकिस्तान को खोखला कर दिया था।

भारतीय सेना को रवीन्द्र के जरिये रणनीति बनाने का पूरा मौका मिला और पाकिस्तान जिसने कई बार राजस्थान से सटी सीमा पर युद्ध छेड़ने का प्रयास किया उसे मुंह की खानी पड़ी।

ये बात बहुत कम लोगोँ को पता है कि पाकिस्तान के साथ हुई लड़ाईयोँ का असली हीरो रवीन्द्र कौशिक है रवीन्द्र के बताये अनुसार भारतीय सेना के जवानों ने अपने अतुल्य साहस का प्रदर्शन करते हुये पहलगाम में घुसपैठ कर चुके 50 से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराया। पर दुर्भाग्य से रवीन्द्र का राज पाकिस्तानी सेना के सामने खुल गया।

रवीन्द्र ने किसी तरह भागकर खुद को बचाने के लिये भारत सरकार से अपील की पर सच्चाई सामने आने के बाद तत्कालीन इंदिरा गाँधी सरकार ने उसे भारत वापिस लाने में कोई रुचि नहीँ दिखाई। अततः उसे पाकिस्तान में ही पकड़ लिया गया और जेल में डाल दिया उस पर तमाम तरह के मुकदमें चलाए गए उसको टार्चर किया गया कि वो भारतीय सेना की गुप्त जानकारियां बता दे, उसे छोड़ देने का लालच भी दिया गया पर उसने मुंह नहीँ खोला और बाद मे जेल मे ही उसकी मौत हो गयी।

ये सिला मिला रवीन्द्र कौशिक को 30 साल की देशभक्ति का, भारत सरकार ने भारत मे मौजूद रवीन्द्र से संबंधित सभी रिकार्ड मिटा दिये और RAW को धमकी दी कि रवीन्द्र के मामले मे अपना मुंह बंद रखे, उसके परिवार को हाशिये में ढकेल दिया गया और भारत का ये सच्चा सपूत गुमनामी के अंधेरे में खो गया।

एक था टाइगर नाम की ये फिल्म रवीन्द्र कौशिक के जीवन पर ही आधारित है जब इस फिल्म का निर्माण हो रहा था तो सरकार के दखल के बाद इसकी स्क्रिप्ट में फेरबदल करके इसकी कहानी मे बदलाव किया गया पर मूल कथा वही है।

इस देशभक्त को गुमनाम ना होने देँ इस पोस्ट को शेयर एवं टैग करेँ इस पोस्ट को और ज्यादा से ज्यादा लोगोँ को बतायेँ और हाँ जब भी ये फिल्म देखने जायेँ तब इस असली टाइगर को जरूर याद कर लें।

Courtesy Dainkik Bhaskar

Wednesday, November 9, 2011

1 वर्ल्ड कप विजेता महिला खिलाड़ियों का पहले होटल और फिर सड़क पर 'अपमान'!


लुधियाना. एक ही दिन बीता और महिला खिलाड़ियों की बदहाली की हकीकत सामने आ गई। कबड्डी वर्ल्ड कप के दूसरे दिन ही सरकार का रवैया पूरी तरह बदल गया। वर्ल्ड कप की आखिरी शाम रविवार को 30 हजार दर्शकों के बीच दमखम दिखा रहीं विश्व विजेता महिला खिलाड़ी दूसरे दिन सड़क पर ऑटो के लिए भटकती रहीं। इससे पहले जो हुआ वह भी दुखद था, जिस होटल भी ये लड़कियां ठहरी थीं उसके बिल को लेकर भी दो घंटे तक विवाद रहा। पैसे चुकाने को आश्वासन मिलने के बाद ही उन्हें होटल से जाने दिया गया।


पहले पेमेंट करें, फिर चेक-आउट 
होटल पार्क प्लाजा में रह रहीं टीमें जब सोमवार को 12 बजे घर वापसी के लिए चेक-आउट करने लगी तो होटल मैनेजमेंट ने खिलाड़ियों के पेमेंट को लेकर अड़ंगा डाल दिया। होटल वालों की मानें, तो खिलाड़ियों ने होटल के अंदर से खाने- पीने की चीजें उपयोग की हैं, जिसके लिए उन्हें एक्सट्रा पेमेंट करना है। 

टीम के नाम लगभग 22 हजार का एक्सट्रा पेमेंट निकला। ऐसे में कोच व होटल कर्मी के बीच एक्सट्रा पेमेंट को लेकर बवाल खड़ा हो गया। काफी देर बाद होटल मैनेजमेंट को पेमेंट का आश्वासन दिए जाने पर भारतीय टीम को 2 घंटे बाद चेक-आउट करने को मिला। 

पंजाब के स्पोर्ट्स डायरेक्टर परगट सिंह ने कहा कि आयोजन समिति की ओर से पूरी व्यवस्था की गई थी। खिलाड़ियों और टीम मैनेजर्स को बड़े-बड़े होटलों में ठहराया गया। आने-जाने के लिए बसों की व्यवस्था भी की गई। यह टीम मैनेजर्स की जिम्मेदारी थी। टीम मैनेजर्स ने जो हमसे मांगा, हमने उन्हें दिया। अगर घर वापसी के लिए भी कहते तो यह भी व्यवस्था कर दी जाती।

हाथों पर वर्ल्ड कप ट्राफी लेकर ऑटो से निकली टीम इंडिया 
होटल से चेक-आउट करने के बाद विश्व विजेता भारतीय महिला टीम के लिए घर वापसी की समस्या खड़ी हो गई। आयोजन समिति ने इन खिलाड़ियों के लिए न तो कोई बस की व्यवस्था की और न ही गाड़ी की। ऐसे में खिलाड़ी हाथों में वर्ल्ड कप का ताज और 25 लाख रुपए का सिंबॉलिक चेक लेकर कोच जसकरन के साथ पैदल ही सड़क की ओर निकल पड़े। 

होटल से निकलते ही खिलाड़ियों को देखकर आने-जाने वाले भी लोग हैरान रह गए। भाई बाला चौक पहुंचते ही कुछ ट्रैफिक पुलिस कर्मी खिलाड़ियों की ऐसी स्थिति देखकर उनके पास पहुंच गए। बातचीत के दौरान ट्रैफिक पुलिस कर्मियों ने यह तक कह डाला कि हमारे लिए कोई सेवा हो तो बताएं। आप हमारे देश की शान हो। इसी बीच एक ट्रैफिक पुलिस कर्मी ने ऑटो रोका और कोच व खिलाड़ियों को बैठाकर बस स्टैंड के लिए अलविदा कहा। 

3 दिन एक ही ड्रेस में गुजारे
बठिंडा में हुए भयानक हादसे के बाद महिला टीम के पास एक ही ट्रैक सूट बचा। उस हादसे में खिलाड़ियों के सारे कपड़े, पैसे और जरूरी सामान जलकर खाक हो गए थे। हालांकि बठिंडा के डीसी ने एक अफसर को खिलाड़ियों के साथ बाजार भी भेजा, लेकिन खिलाड़ी हादसे से इतने घबराए और सहमे हुए थे, कि केवल एक ट्रैक सूट खरीद कर ले आई। और वही एक ट्रैक सूट तीन दिनों तक पहनती रहीं। केवल यही नहीं, इस बीच प्रत्येक खिलाड़ी को दस हजार देने का एलान भी किया गया था। बावजूद इसके खिलाड़ियों के हाथों कुछ नहीं लगा और पैसे न होने की वजह से खिलाड़ियों के घर वापसी की समस्या खड़ी हो गई।

महिला खिलाड़ियों ने पहली बार कबड्डी वल्र्ड कप में भाग लिया है। प्रोत्साहन राशि के तौर 25 लाख का इनाम दिया गया है। कबड्डी में बढ़ते उत्साह को देखते हुए महिलाओं की टीम को शामिल किया गया था। इसे पुरुषों व महिलाओं के बीच भेदभाव नहीं कहना चाहिए।

- परगट सिंह, स्पोर्ट्स डायरेक्टर, पंजाब

Thursday, July 14, 2011

0 नाइंसाफी: अजमल की सुरक्षा पर 31 करोड़ तो एक नागरिक पर महज 190 रुपये खर्च !

मुंबई में एक बार फिर हुए आतंकी हमले में करीब 20 लोगों की जान चली गई है। आंकड़ों पर नजर डालें तो लगता है कि महाराष्‍ट्र सरकार के लिए इन जानों की कोई कीमत नहीं है। 
 
महाराष्‍ट्र में सरकार राज्‍य के एक नागरिक पर सुरक्षा के नाम पर साल भर में महज 190 रुपये का बजट देती है। इसमें गृह विभाग पर किया जाने वाला सारा खर्च शामिल है। इसके उलट, मुंबई हमले के गुनहगार आतंकी अजमल अमीर कसाब की सुरक्षा पर एक साल में ही 31 करोड़ रुपये खर्च कर दिए गए थे। इस खर्च में कसाब की सुरक्षा कर रही आईटीबीपी का एक साल (वर्ष 2009-10) का करीब 11 करोड़ रुपये का बिल शामिल नहीं है। आईटीबीपी ने यह बिल महाराष्ट्र सरकार को दिया था, जिसे प्रदेश की सरकार ने केंद्र के पास मंजूरी के लिए भेजा है।
 
इस साल हुई जनगणना के मुताबिक महाराष्ट्र की कुल आबादी करीब 11 करोड़ (11,23,72,972) है, जबकि महाराष्ट्र सरकार के गृह विभाग का कुल सालाना बजट (वित्त वर्ष 2011-12 के लिए) करीब 2100 करोड़ रुपये है। इस हिसाब से हर नागरिक की सुरक्षा के लिए साल भर में करीब 186 रुपये का ही प्रावधान बजट में है।
 
कसाब पर हो रहे खर्च को सही ठहराते हुए महाराष्ट्र सरकार के एक अधिकारी ने कहा, 'जब राज्य और देश की सुरक्षा का सवाल आएगा तो हम आर्थिक हालत की चिंता नहीं करेंगे।' कसाब पर हो रहे खर्च के बारे में अधिकारी ने कहा, 'सबसे ज़्यादा पैसा आर्थर रोड जेल में उस स्पेशल सेल को बनाने में किया गया है जिसमें कसाब को कैद रखा गया है। यह सेल इतना मजबूत है कि अगर ट्रक में विस्फोटक लादकर इसमें टक्कर मारी जाए तो भी कसाब सुरक्षित रहेगा। कसाब की ज़िंदगी बचाने के लिए ऐसे उपाय करने जरूरी हैं ताकि मुंबई हमलों में पाकिस्तानी हाथ होने का सुबूत सुरक्षित रहे।'
 
मुंबई पुलिस की हालत खस्ता!
कई आतंकी हमले झेल चुकी मुंबई की पुलिस की हालत भी खस्ता है। मुंबई पुलिस को मिलने वाले सालाना बजट का 85 फीसदी सिर्फ मुंबई पुलिस के करीब 40 हजार कर्मियों की तनख्वाह पर खर्च होता है। यही वजह है कि मुंबई पुलिस के आधुनिकीकरण और खुफिया जानकारी इकट्ठा करने के लिए ज़्यादा फंड बचता ही नहीं है। मुंबई पुलिस कर्मियों की यह शिकायत भी रही है कि उन्हें घोषणा किए जाने के बावजूद इनामी रकम नहीं मिलती है। 1993 के मुंबई बम ब्लास्ट में दोषियों का पर्दाफाश करने वाले पुलिसकर्मियों अब तक घोषित इनाम की रकम नहीं मिली है। वहीं, 2003 के गेटवे ऑफ इंडिया और झावेरी बाज़ार बम धमाकों के केस को हल करने वाले पुलिसवालों को भी इनामी रकम का इंतजार है। ऐसे में मुंबई पुलिस के मनोबल को समझा जा सकता है।
 
सेक्रेट सर्विस पर मुंबई पुलिस का खर्च महज सालाना 50 लाख रुपये के आसपास है। मुंबई पुलिस में तैनात रहे पूर्व आईपीएस अधिकारी वाई पी सिंह ने कहा, 'सेक्रेट सर्विस के तहत मिलने वाला फंड खुफिया जानकारी इकट्ठा करने और मुखबिरी पर खर्च किया जाता है। लेकिन इस मद में मिलने वाली रकम पर सिर्फ हंसा जा सकता है। इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि मुंबई पुलिस का खुफिया तंत्र कितना मजबूत है।'    
आतंकी 'मेहमान 
कसाब को हत्या, हत्या की साजिश, देश के खिलाफ जंग छेड़ना, हत्या में सहयोग देने और गैर कानूनी गतिविधि अधिनियम के तहत आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने के आरोप में फांसी की सजा सुनाई गई। लेकिन अभी तक फांसी नहीं दी गई है। वहीं, संसद पर हमले का दोषी अफजल गुरू आज भी जेल में है। अब भी वह फांसी का इंतजार कर रहा है। इसकी दया याचिका 2005 से लंबित है। इनकी सुरक्षा का बोझ सरकारी खजाने पर पड़ रहा है

COURTESY DAINIK BHASKAR

Monday, December 20, 2010

0 दुकान दाल-मसालों की चालान काटा बालूशाही का।

नई दिल्ली दुकान दालों व मसालों की, पर चालान हुआ बालूशाही कम तौलने का। इसे नाप तौल विभाग के अधिकारियों की लापरवाही कहें या फिर जेब गर्म करने की हड़बड़ी। अधिकारियों ने चालान करने में इतनी तेजी दिखाई कि वे मिठाई व दाल-मसालों की दुकान में अंतर करना ही भूल गए। मामला बाबरपुर का है। बालूशाही को निर्धारित वजन से कम बेचने का आरोप दुकानदार पर लगाया गया है, लेकिन दुकान मिठाई की नहीं, बल्कि दाल व मसालों की है। दुकानदार ने मामले की शिकायत आला अधिकारियों से की तो अधिकारियों ने चालान को रद नहीं किया। उसने मुख्यमंत्री कार्यालय का दरवाजा खटखटाया है। विजय कुमार की बाबरपुर की गौतम गली में दालों व मसालों की दुकान है। उन्होंने 7 अगस्त, 2009 को नापतौल विभाग में क्षेत्र के इंस्पेक्टर द्वारा बिना चेकिंग के वजन तौलने वाले बट्टे पास किए जाने का घपला उजागर किया था। इस मामले में विभागीय जांच बैठी और कई अधिकारी जांच के दायरे में आए थे। जांच के फेरे में आए कुछ अधिकारियों ने उसे परेशान करने और बदला लेने की नीयत से 18 नवंबर, 2010 को बालूशाही का चालान काट कर भेज दिया। चालान रसीद में बताया गया कि विभाग के इंस्पेक्टर द्वारा चेकिंग के दौरान वह बालूशाही मिठाई वजन से कम तौल कर ग्राहक को देता पाया गया। उसने कभी मिठाई की दुकान की ही नहीं। चालान में उसकी दुकान का नाम शर्मा स्वीट्स बताया है, जबकि दुकान विजय सरल स्टोर के नाम से है। उसने मामले की शिकायत विभाग के आला अधिकारियों को की, मगर चालान रद नहीं किया गया। विजय कुमार ने मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से मिलकर न्याय की गुहार लगाई है। मुख्यमंत्री कार्यालय ने उसकी शिकायत के संदर्भ में नापतौल विभाग के अधिकारी ओपी पांडेय को जांच के निर्देश जारी कर दिए हैं!
Courtesy Dainik jagran

Saturday, December 11, 2010

0 1950 – 2010 : भारत तब और अब!

 26 जनवरी 1950 – देश के सँविधान को लागू किया गया. भारत प्रजातंत्र बना. देश पर लोगों का राज हुआ. आम जनता अब शासक थी जो अपने प्रतिनिधि को संसद तक भेजती थी और वे प्रतिनिधि देश का राजकाज चलाते थे. अंग्रेजो की गुलामी समाप्त हुई. उस समय जो देश की स्थिति थी उससे कई गुना अच्छी स्थिति आज है. भारत ने प्रगति की है, भले ही रफ्तार कम रही हो. 

1950
में भारत में साक्षरता की दर मात्र 18% थी. यानी कि हर 100 में से 18 लोग ही पढना लिखना जानते थे. आज भारत की साक्षरता दर 68% है. इसके अलावा स्वास्थ्य सुविधाओं और जीवन की गुणवत्ता में भी काफी बदलाव आया है. 1950 में औसत आयु 32 वर्ष की हुआ करती थी जो अब बढकर 68 वर्ष हो गई है. 

1950
में हर 1000 में से 137 नवजात शिशुओं की जन्म प्रक्रिया के दौरान या उसके कुछ दिनों बाद मृत्यु हो जाती थी, अब यह दर घटकर प्रति 1000 में से 53 रह गई है. 1950 में से प्रति 1 लाख लोगों के बीच 16 चिकित्सक होते थे आज यह दर बढकर 60 हो गई है.     

देश की समृद्धि में भी बढोत्तरी हुई है और लोगों का जीवन स्तर ऊँचा हुआ है. 1950 में देश की पर कैपिटल आय 255 करोड़ थी, आज यह 37490 करोड़ है. इसके अलावा कृषि क्षैत्र में भी काफी प्रगति हुई है. भोजन के लिए काफी महत्वपूर्ण गेहूँ की पैदावार 1950 में 65 लाख टन थी जो अब बढकर 7 करोड़ 86 लाख टन हो गई है. 

व्यापार की बात करें तो 1950 में देश का निर्यात 606 करोड़ रूपए का था जो अब बढकर 7.7 लाख करोड़ हो गया है. दूसरी तरफ आयात 608 करोड़ रूपए से बढकर 13.1 करोड़ हो गया है. इस लिहाज से देखें तो 1950 में भारत की आयात लागत निर्यात के लगभग बराबर ही थी लेकिन आज देश जितनी आमदनी निर्यात करके प्राप्त करता है उससे कहीं अधिक खर्च आयात करने में जाता है. सरकार का खर्च भी बढ गया है. 1950 में सरकार का कुल खर्च 337 करोड़ हुआ करता था और आमदनी 338 करोड़. आज सरकार का खर्च और आमदनी दोनों 10.2 लाख करोड़ है. 

1950
में देश का रक्षा बजट 168 करोड़ रूपए था, आज यह बढकर 1.7 लाख करोड़ रूपए हो गया है. सोने का भाव प्रति 10 ग्राम 98 रूपए था जो अब बढकर 16445 रूपए हो गया है. 

1950
में देश में 19811 किलोमिटर के हाईवे थे, आज 70548 किलोमिटर के हाईवे हैं. 1950 में पूरे देश में करीब 1 लाख टेलिफोन कनेक्शन थे, आज 54 करोड़ 30 लाख टेलिफोन कनेक्शन हैं. 1950 में प्रति व्यक्ति बिजली की खपत 15.6 किलोवॉट थी जो अब बढकर 631 किलोवॉट हो गई है. 

और अंत में 1950 में देश की आबादी 36 करोड़ थी जो अब बढकर 1 अरब 25 करोड़ के आसपास हो गई है. यानी कि 220% अधिक!

sOURCE: तरकश ब्यूरो अपनी बहुमूल्य टिपण्णी देना न भूले- धन्यवाद


Sunday, September 19, 2010

0 सरकार प्रॉपर्टी डीलर बन गई है

किसानों की ज़मीन सस्ती दरों पर लेकर बड़े-बड़े उद्योगपतियों और बिल्डरों को बेचे जाने से किसान नाराज़ हैं. ये उद्योगपति और बिल्डर इस ज़मीन पर टाउनशिप, मॉल, होटल और क्लब बनाने की तैयारी में हैं. किसानों को आज जिस ज़मीन के लिए 570 रुपये प्रति वर्ग मीटर की क़ीमत दी जा रही है, अगले बीस सालों में उसकी क़ीमत 5 हज़ार रुपये से ज़्यादा हो जाएगी. उद्योग जगत में आजकल वायदा कारोबार का जोर है. ज़मीन किसान की और फायदा उद्योगपतियों एवं बिल्डरों का, यह सरासर बेईमानी है. इस शोषण की ज़िम्मेदार सरकार और उसकी बनाई नीतियां हैं, जो औने-पौने दामों पर ग़रीब किसानों की ज़मीन हड़प रही है. किसानों को यह लगने लगा है कि सरकार उनकी हितैषी नहीं है. वह एक दलाल की भूमिका में है और किसानों के गुस्से की असल वजह यही है

Friday, September 17, 2010

0 कामन लोगों का चूसा पैसा हुक्म रानों की जेब में!

: जिस मुल्‍क में सिर छिपाने की छत नहीं वहां अरबों का बना स्‍टेडियम कुछ दिन में टपकने लगता है : अब मध्‍यम वर्ग के रहने लायक नहीं बची दिल्‍ली : बीजिंग में ओलम्पिक खेलों का शानदार आयोजन और हमारे महान भारत में होने वाले कामनवेल्थ खेलों की तैयारी को लेकर मचा बवाल रह-रह मन में आ रहा है। भला आये भी कैसे ना, मीडिया से जो जुडा हूं। न्यूज चैनल भी देखता हूं, अखबारों पर भी निगाह दौड़ा ही लेता हूं। हर चैनल और अखबार कामनवेल्थ की तैयारियों में हो रहे महाघोटाले से भरे हैं। मुल्क की गरिमा से जुड़े इस आयोजन ने शुरू होने से पहले ही महान भारत की फजीहत पूरे विश्व के सामने कर डाली है। अभी तो खेल हुए ही नही है, आगाज ही जब इतना भयावह है तो अंजाम कैसा होगा, ख़ुदा ही जाने।
अभी-अभी एक न्यूज चैनल में कामनवेल्थ के महाघोटाले को लेकर हो रही बहस सुन रहा था। एक महाशय बीजिंग ओलम्पिक से हमारी तुलना कर रहे थे कि दूसरे महाशय ने तपाक से कह डाला चीन की क्यों तुलना कर रहे हैं। वहां तो विकास पहले से ही हुआ था, उन्हें करना ही क्या है। बस स्टेडियम ही तो बनाने थे, बना डाले। हमने तो फ्लाई ओवर, सड़कें, बसें न जाने क्या-क्या इंतजाम करने है। तभी याद आईं एक दौर में पढ़ी किताब 'अफीम युद्ध से मुक्ति तक', जिसमें 1940 से पहले के चीन को दर्शाया गया है। किस तरह विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या वाला मुल्क अफीम के नशे में डूबा है।
अब जरा सोचिए 1940 के आस-पास कम से कम भारत को अफीमचियों का मुल्क तो नही कहा जाता था। लेकिन 1947 के बाद भारत में ऐसा क्या हो गया कि हम अपनी तुलना चीन से नही कर सकते और 1948 में एक संगठित मुल्क के रूप में वजूद मे आये चीनी आज खुद को अमेरिका से भी आगे देख रहे हैं। चीन में हुए बीजिंग और भारत में होने वाले कामनवेल्थ से कई चीजें साफ हो रही है। चीन और भारत कई मायनों में एक जैसे देश कहे जा सकते थे, हैं नहीं। लेकिन दोनों मुल्कों के रहनुमाओं में भारी अंतर भी देखने को मिल रहा है। मैं, भारत जैसे मुल्क की तुलना यूरोप और अमेरिका से नही कर रहा हूं। क्योंकि इन देशों ने वाकई में विकास की रफ्तार काफी पहले पकड़ ली थी। लेकिन हमारे हुक्मरानों को क्या हो गया है।
एक दौर में अफीमचियों का चीन आज विश्व का सिरमौर बनने को तैयार है और हम कहां है ? शीशे की तरह साफ हो गया है। जिस मुल्क में लोगों के लिए सर छुपाने को छत नसीब नही होती है, उसी मुल्क में अरबों की लागत से बने स्टेडियम, उदघाटन के पल भर में ही टपकने लगते है। मुल्क की अस्मिता की आड़ में हमारे हुक्मरानों ने आस्ट्रेलिया में हुए कामनवेल्थ की तुलना में दो गुना से भी ज्यादा पैसा बहा डाला है। जिसकी भरपाई दिल्ली में रहने वालों का खून चूस कर की जा रही है। जो दिल्ली कुछ सालों पहले तक मध्यम वर्ग के लिए रहने लायक थी। आज वो दुनिया का पांचवां महंगा शहर बन गया है। इन बेदर्द नेताओं की रहनुमाई में कैसे दिल्ली में जिन्दगी गुजर पायेगी समझ नही आ रहा है।
विश्व में किसी राष्ट्रीय आयोजन को लेकर इतना हो-हल्ला शायद ही कहीं मचा हो। लेकिन फिर भी केन्द्र से लेकर दिल्ली सरकार चुप है। सुरेश कलमाड़ी, जो इस महाघोटाले के नायक कहे जा रहे हैं, उन पर अभी भी कार्रवाई होती नही दिख रही है। तर्क है कि लास्ट टाइम में कैसे नये आदमी को कामनवेल्थ की बागड़ोर दे सकते है, ये कहना है हमारे खेल मंत्री गिल साहब का, जो खुद को तो ईमानदार दिखाते है, लेकिन भ्रष्ट्राचारियों को कुछ नही कहते है। गिल साहब जरा ये भी बता दीजिये अगर कहीं कलमाड़ी बीमार पड़ गये या फिर खुदा ना करे उन्हें कुछ हो गया तो, क्या आप कामनवेल्थ का आयोजन बंद कर देंगे।
चीन में भ्रष्‍टाचारियों को एक बार नही कई बार फांसी दी गई है। मैं फांसी की समर्थक नही हूं। लेकिन जब मुल्क में महाचोर खुले आम घूम रहे हों, घूम नही रहे है बल्कि हमारे बाप बन कर बैठे है, तो पल भर के लिए लगता है कि काश यहां भी किसी भ्रष्टाचारी को फांसी दी गई होती तो शायद कुछ डर तो लगता ऐसे महाभ्रष्टों को। लेकिन तब भी शायद ही कोई महाभ्रष्‍टाचारी फांसी चढ़ता। हां क्लर्क टाइप के छोटे-छोटे भ्रष्‍टाचारियों से जरूर फांसी पर चढ़ने वालों की तादात बढ़ जाती। सब जान  रहे हैं कामनवेल्थ के जरिये आयोजको से लेकर संबंधित नेताओं ने इतना कमा लिया है कि दसियों पीढी लुटाती भी रहे तो शायद ही खर्च हो। फिर कोई कुछ कहने और करने की नही सोच रहा है।
करप्शन को इतना खुला सपोट मेरे महान भारत से ज्यादा शायद कहीं मिले। विपक्ष का हल्ला सिर्फ इसलिए है कि सारी मलाई सत्ता पक्ष से जुड़े लोग अकेले कैसे खा रहे हैं। जरा सोचिए.. ये वो ही लोग है जो हर साल 15 अगस्त और 26 जनवरी को पूरे मुल्क के सामने ईमानदारी और देशभक्ति कसमें खाते नही थकते हैं। लगता है इस मुल्क में कोई भी बड़ा आयोजन कुछ चुनिनंदा लोगों के मलाई खाने का मौका भर होता है। कामनवेल्थ में देश कितने मेडल लायेगा, कैसे अंकतालिका में हिन्दुस्तान आगे बढ़ेगा किसी को इसकी रत्ती भर भी फ्रिक नही है।
लूट की गंगा बह रही है, जो चाहे डुबकी लगा ले। न कोई रोकने वाला है, ना टोकने वाला। जिस प्रकार इन खेलों में करप्शन पर सभी दलों में आम सहमति बनाने की कोशिश की जा रही है, उसे देखकर लग रहा है कि जल्द ही इस मुल्क में भ्रष्‍टाचार को मौलिक अधिकार का दर्जा मिल सकता है। तब शायद सीबीआई और विजिलेंस के लोग किसी बाबू को हजार रूपये की घूस लेने के आरोप में जेल में नहीं डाल पायेंगे। क्योंकि बड़ी मछलियों को पकड़ने की इन्होंने कभी जहमत ही नही उठाई। चलो कम से कम भ्रष्टाचार को मौलिक अधिकार का दर्जा मिलने पर इस मामले में तो देश में समाजवाद आ जायेगा। धन्य है, भारत मुल्क और उसके नेता। और हम भी।
लेखक विजय वर्धन उप्रेती.

Thursday, July 15, 2010

0 आखिर रुपए को मिला अपना सिंबल



नई दिल्ली ।। आखिर रुपए को अपना प्रतीक चिह्न मिल गया। कैबिनेट ने आईआईटी पोस्ट ग्रैजुएट डी. उदय कुमार के डिजाइन को अपनी मंजूरी दे दी है।  केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने गुरुवार को यह जानकारी दी। उन्होंने बताया कि पांच सदस्यों वाले पैनल ने इस डिजाइन को कैबिनेट की मंजूरी के लिए भेजा था। पैनल ने यह डिजाइन उन पांच डिजाइनों में से चुना जिन्हें आखिरी दौर के लिए चुना गया था। 

डी. उदय कुमार का तैयार किया हुआ यह प्रतीक चिह्न भारतीयता और अंतरराष्ट्रीयता का अद्भुत मेल जान पड़ता है। जैसा कि आप तस्वीर में देख सकते हैं इसमें देवनागरी के '' और रोमन कैपिटल 'R' (बगैर डंडे के)दोनों के संकेत मिलते हैं। 

वित्त मंत्रालय ने इसके लिए एक डिजाइन प्रतियोगिता आयोजित की थी और विजेता को 2.5 लाख रुपये के इनाम की घोषणा की थी। शर्त यह थी कि यह कंप्यूटर के स्टैंडर्ड कीबोर्ड में फिट हो जाए, राष्ट्रीय भाषा में हो और भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत को दर्शाए। 

अभी तक भारतीय रुपये को संक्षिप्त रूप (abbreviated form) में अंग्रेजी में Rs या Re या फिर INR के जरिए दर्शाया जाता है। नेपाल , पाकिस्तान और श्रीलंका में भी मुद्रा का नाम रुपया ही है। लेकिन दुनिया की प्रमुख मुद्राओं का संक्षिप्त रूप के अलावा एक प्रतीक चिन्ह भी है जैसे अमेरिकी डॉलर को USD कहते हैं और इसका प्रतीक चिह्न $ होता है।

[जेएनएन
THANKS AND  COURTESY BY  JNN

0 Air India and praful patel तुझे सलाम

कल समाचार पत्र में निचे लिखी खबर पढ़ी, पढ़कर बहुत ही ताज्जुब हुआ ! एक तरफ हम कहते है जब सारी दुनिया में मंदी थी, परन्तु हम पर उसका प्रभाव बहुत ही कम पड़ा, क्योंकि हमारा मैनेजमेंट  बहुत ही अच्छा था, हमारे प्रधान मंत्री एक सफल अर्थशाष्त्री है,

जहाँ एअर इंडिया करोडो के घाटे में चल रही है, सरकार  से उसे समय समय पर आक्सीजन मिलती है, कहीं दम न तोड़ दे. कम से कम इस पर देश का झंडा तो लगा है, मंत्री और अफसरों को और उनके परिवार को मुफ्त की हवाई यात्रा भी तो करनी है|

IPL के दोरान इसी सरकारी airlines को हमारे आदरनीय उड्डयन मंत्री की बेटी अपनी मर्जी से कहीं भी ले जा सकती है| क्योकि वह इसकी मालकिन जो है, पैसा हमारे टैक्स से आया है, तब भी क्या फर्क पड़ता है. आदरनीय प्रफुल पटेल जी आपको और आपके मैनेजमेंट को सलाम ! करो बरबाद इस देश को जी भर कर, जब ये देश ही नहीं रहेगा, तो आप और आप जैसे दुसरे नेता क्या करेंगे!!  

फ्लाइट्स जाती नहीं, पर दफ्तर चलता है
नई दिल्‍ली. भारत की सरकारी एयरलाइन कंपनी एअर इंडिया की 'राजशाही' उसे भले ही ले डूब रही हो, पर 'महाराजा' अपनी आदतों से बाज नहीं आने वाले। आलम यह है कि एअर इंडिया तमाम ऐसी विदेशी लोकेशन्स पर अपना दफ्तर चला रही है, जहां एयरलाइंस के फ्लाइट्स की आवाजाही ही नहीं है।  एम्सटर्डम, लॉस एंजेल्स, मिलान, विएना, ज्यूरिख, मास्को, काहिरा, तेहरान, नैरोबी, सिडनी, चटगांव जैसी लोकशंस पर एयर इंडिया के दफ्तर हैं। ये दफ्तर चलाने में अच्‍छी-खासी रकम जाया हो रही है। पर कमाई एक धेला भी नहीं है, क्‍योंकि इन शहरों में एअर इंडिया की उड़ान सेवा ही नहीं है। कोपनहेगन, ब्रुसल्स और बेरूत में भी एअर इंडिया ने दफ्तर खोल रखे हैं। हालांकि इन तीन ऑफिसों के बारे में एअर इंडिया कह रही है कि इन्हें बंद की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है।  एयर इंडिया की दलीलइस फिजूलखर्ची को जायज ठहराने के लिए एअर इंडिया के अपने तर्क हैं। कंपनी की दलील है कि लॉस एंजेल्स, विएना, ज्यूरिख और मास्को में एअर इंडिया का दूसरी एयलाइन्स के साथ कोड शेयरिंग एग्रीमेंट है, इसलिए वहां ऑफिस खोलना जरूरी है। यह तर्क मान भी लिया जाए, तो इन चार लोकेशन्स के अलावा दूसरी जगहों पर ऑफिस खोलकर रखना समझ से परे है। इन लोकेशन्स पर ऑफिस चलाने के लिए एअर इंडिया पानी की तरह पैसा बहा रही है। हमारे पास उपलब्‍ध साल 2008-09 के आंकडों के मुताबिक लॉस एंजेल्स में दफ्तर चलाने के नाम पर एयर इंडिया मैनेजमेंट ने एक साल में 15.76 करोड़ रुपए खर्च किए। इसी तरह नैरोबी ऑफिस के नाम पर 6.5 करोड़, ज्यूरिख के लिए 4.67 करोड़ और सिडनी ऑफिस के नाम पर 3.77 करोड़ रुपए खर्च किए गए। केवल इन्हीं लोकेशन्स को शामिल किया जाए तो साल भर का खर्च 30 करोड़ रुपये से ज्यादा बैठता है।  एअर इंडिया में लगातार लागत खर्च घटाने की बात कहने वाले सिविल एविशन मंत्रालय ने कभी इन ऑफिसों को बंद करने की हिदायत दी या नहीं, इस पर एअर इंडिया कुछ भी कहने को तैयार नहीं। लेकिन इतना तो साफ है कि एअर इंडिया मैनेजमेंट की लापरवाहियों के चलते कभीं भारत की शान माने जाने वाले इस एयलाइन की हालत दिनों दिन बद्तर होती जा रही है। साल 2009-10 के दौरान एअर इंडिया को 5400 करोड़ा रुपए के घाटे का अनुमान जताया जा चुका है।


Saturday, July 10, 2010

1 होमी जहाँगीर भाभा : "परमाणु पुरूष"



 हमें पहले खुद को साबित करना होगा, उसके बाद हम गांधी, शांति और बिना परमाणु हथियार वाले विश्व की बात कर सकते हैं होमी जहाँगीर भाभा.

यह बात उसने कही थी जिसने भारत को परमाणु शक्ति सम्पन्न बनाया. इसकी पहल भी इन्होनें ही की थी, वह भी तब जब कोई इस बारे में सोचता भी नहीं था. होमी जहाँगीर भाभा सही मायनों में देश के परमाणु "पितामह" थे.

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यह तो सोता ही नहीं है!– मेहरबाई भाभा को यह चिंता इतनी सताने लगी कि उन्होनें अपने पति जहाँगीर भाभा से कहा कि नन्हे होमी को डॉक्टर को दिखाना होगा. डॉक्टर ने जाँच की और मेहरबाई को सांत्वना देते हुए कहा कि चिंता ना करे. यह बच्चा हाइपर एक्टिव है. कम सोता है लेकिन खूब सोचता है.

वह बच्चा होमी जहाँगीर भाभा था जिसका जन्म 30 अक्टूबर 1909 को मुम्बई [तब बम्बई] में एक सुसंस्कृत पारसी परिवार में हुआ था.

होमी बचपन से काफी मेधावी थे. उन्होने प्रारम्भिक शिक्षा सेंट मेरी स्कूल से प्राप्त की और 15 वर्ष की उम्र में तो सीनियरकैम्ब्रीज परिक्षा भी पास कर ली. यह 1924 की बात है. इसके 3 साल बाद होमी इंग्लैंड गए और कैम्ब्रीज में न्यूक्लियर फिजिक्स की पढाई करने लगे. पढाई पूरी करने के बाद अगले 12 साल तक होमी वहीं रहे और कोस्मिक रे के ऊपर शोध कर पीएचडी भी प्राप्त की.  उन्हें जब पीएचडी की उपाधि प्रदान की गई तब उनकी उम्र मात्र 25 वर्ष थी.

1940
में होमी भाभा भारत आए. इस बीच द्वितीय विश्वयुद्ध छीड़ जाने से वापस ब्रिटेन जाना मुश्किल हो गया था इसलिए उन्होने बंगलूर स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस में पढाना शुरू कर दिया. वहीं उनकी मुलाकात सीवी रमन और विक्रम साराभाई से भी हुई.
19
दिसम्बर 1945 को होमी जहाँगीर भाभा के सुझाव पर सर दोराब टाटा [टाटा ट्रस्ट के प्रमुख] ने टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च की स्थापना की. होमी भाभा को इस संस्थान के पहले निदेशक बने.

होमी जहाँगीर भाभा शुरू से मानते थे कि परमाणु ऊर्जा से देश को काफी फायदा पहुँच सकता है और बिजली की सारी समस्या समाप्त हो सकती है. उन्होने दोराब टाटा से कहा भी था कि हम ऐसा संस्थान बनाते हैं जहाँ से परमाणु वैज्ञानिक तैयार किए जा सकें. आज से दशकों बाद भारत में परमाणु बिजली संयत्र लगाए जाएंगे तब देश को बाहर से लोग नहीं लाने पड़ॆंगे. देश में ही काफी वैज्ञानिक तैयार होंगे.

तब होमी भाभा पर कम ही लोग यकीन करते थे, लेकिन वे हमेशा दूर की सोचते थे. और आज यह सच है.

आज़ादी के बाद इनके कहने पर ही प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संसद में विधेयक पारित कर इंडियन एटोमिक एनर्जी कमीशन बनाया. इसके बाद अगस्त 1954 में डिपार्टमेंट ऑफ एटोमिक एनर्जी बना और होमी भाभा इसके सचीव बने. यह विभाग सीधे प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करता है. तब तक भारत ने ट्रोम्बे में पहले परमाणु सयंत्र पर काम शुरू कर दिया था.

लेकिन होमी जहाँगीर भाभा परमाणु ऊर्जा से भी आगे बढने को तत्पर थे. उन्होने देश के लिए परमाणु हथियार बनाने की बात सोच रखी थी. राज चेंगप्पा की किताब "वीपन ऑफ पीस" के अनुसार भाभा ने इस बारे में राजा रमन्ना से बात भी की थी. भारत के पहले परमाणु परीक्षण के पीछे जिन लोगों का हाथ है उन्हें भर्ती करने और ट्रेनिंग देने में होमी जहाँगीर भाभा का बड़ा योगदान है.

होमी जहाँगीर भाभा ने देश को परमाणु शक्ति सम्पन्न समृद्ध राष्ट्र बनाने के सपने देखे थे. इस बीच 24 जनवरी 1966 को आल्पस की पहाड़ियों के ऊपर एक एयर इंडिया का बोइंग विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया. दुर्भाग्य से होमी जहाँगीर भाभा भी इस विमान के अन्य अभागे यात्रियों में शामिल थे. उनकी मृत्यु के समय उनकी उम्र मात्र 56 वर्ष थी.

आरोप लगते रहे हैं कि अमेरिकी गुप्तचर संस्था सीआईए ने उनकी हत्या की साजिश रची थी कि भारत परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र ना बन सके. इसमें कितनी सच्चाई है यह तो शायद ही कभी ज्ञात हो लेकिन होमी जहाँगीर भाभा का सपना जरूर पूरा हुआ.
 COURTESY BY TARAKASH BUREAU

Saturday, July 3, 2010

0 Presidents of India

किताबों में पढाया जाता है कि 'राष्ट्रपति प्रधानमंत्री के हाथ की कठपुतली होता है". यह वाक्य एकदम गलत भी नहीं है लेकिन इस पद की गरिमा को कम करता है. भारत का राष्ट्रपति देश का सवैंधानिक प्रमुख और प्रथम नागरिक होता है और समस्त राजकाज उनके नाम से चलता है. 


भारत के राष्ट्रपतियों से जुड़े कुछ रोचक तथ्य: 

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद एकमात्र ऐसे राष्ट्रपति हैं जिन्हें यह सौभाग्य दो बार प्राप्त हुआ. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद देश के पहले राष्ट्रपति भी थे. वे तीसरी बार भी राष्ट्रपति बन जाते यदि उन्हें पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का साथ मिला होता.

·         राष्ट्रपति पद के लिए सबसे कठीन चुनाव 1969 में हुआ था. तब इंदिरा गांधी समर्थित उम्मीदवार वी.वी. गिरी ने कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार को काफी कम अंतर से हराया था. यहाँ तक कि इस चुनाव में दूसरी पसंद के मतों को भी ध्यान में लेना पड़ा.
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·         लेकिन नीलम संजीव रेड्डी को ऐसी किसी तकलीफ का सामना नहीं करना पड़ा. 1977 में नीलम संजीव रेड्डी निर्विरोध राष्ट्रपति चुन लिए गए थे. उस समय जनता पार्टी के हाथों चारों खाने चित्त कांग्रेस ने कोई उम्मीदवार ही खड़ा नहीं किया.
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·         1987 का राष्ट्रपति चुनाव सबसे अधिक रोचक था. कांग्रेस समर्थित आर. वेंकट रमन के अलावा न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर और मिथिलेश कुमार भी मैदान में थे.
·         आर. वेंकटरमन के नाम सर्वाधिक प्रधानमंत्रियों के साथ काम करने का रिकार्ड है. उन्होनें अपने कार्यकाल के दौरान राजीव गांधी, वी.पी. सिंह, चन्द्रशेखर और पी.वी. नरसिम्हराव के साथ काम किया. अंतिम तीन को तो शपथ भी उन्होनें ही दिलवाई.
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·         ज्ञानी जैल सिहं ने यह कहकर कि वे इंदिरा गांधी के कहने पर झाड़ु भी लगा सकते हैं, इस पद की गरिमा को ठेस पहुँचाई.
·         प्रतिभा पाटिल देश की पहली महिला राष्ट्रपति बनी
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