Fact of life!

एवरीथिंग इज प्री-रिटन’ इन लाईफ़ (जिन्दगी मे सब कुछ पह्ले से ही तय होता है)।
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Saturday, November 20, 2010

1 वीर-बरखा जाएंगे तिहाड़?

 बड़ा ही अजीब सवाल है। वीर यानी वीर सांघवी- 'हिंदुस्तान टाइम्स' के संपादकीय निदेशक, बेहद ऊंचा पद। बरखा यानी बरखा दत्त- 'एनडीटीवी 24/7 की समूह संपादक, बेहद रसूखदार पद। सवाल यह उठता है कि इन दोनों का तिहाड़ जेल से क्या मतलब। मतलब है, मतलब ही नहीं बल्कि बहुत बड़ा मक़सद है! दरअसल, 2-जी स्पेक्रट्रम घोटाले के सूत्रधारों में इनकी शुमारी काफ़ी मायने रखती है। कथित रूप से दुनिया की सबसे बड़ी दलाल नीरा राडिया की ये दोनों दाएं-बाएं हाथ सरीखे हैं, जो राजनीति के गलियारे में नीरा राडिया की बेलाग इंट्री करवाते हैं।
2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले के राजा, यानी ए.राजा सबके गले की फांस बने हुए हैं। देश की राजनीति की उत्तरी से दक्षिणी सीमा तक हहाकार मचा हुआ है। गली के छुटभैया नेताओं से लेकर पीएमओ तक सभी अपना ब्रह्मास्त्र एक दूसरे पर चला रहे हैं, लेकिन सब बेकार। ए. राजा का इस्तीफ़ा भी 70 हज़ार करोड़ के इस घोटाले में कोई मायने नहीं रखता। बस सभी लोग भ्रष्टाचार के उस पुराने पेड़ की ऊपरी फुनगी को काटने में लगे हैं, ताकि जब उनकी बारी आए तो फिर दुबारा उगे उस फुनगी से उगे फूल का आनंद ले सकें। फिर क्या? ज़्यादा से ज़्यादा इसी तरह का हो-हंगामा और एक बार फिर उस फुनगी को काट दी जाएगी।
इसी तरह काटने और फुनगी से मज़ा लेने का यह खेल निरंतर चलता रहे, और एक-एक कर जो सरकारें आएं इसका लाभ उठाते रहें। आज़ादी के बाद से अभी तक निरंतर यही होता रहा है। बोफ़ोर्स, टेलिकॉम (सुखराम), जीप पर्चेज (1948), साइकिल इंपोर्ट (1951), मुंध्रा मैस (1958), तेजा लोन(1960), पटनायक मामला (1965), मारुति घोटाला, कुओ ऑयल डील (1976), अंतुले ट्रस्ट (1981), एचडीडब्ल्यू कमिशन्स (1987), सिक्योरिटी स्कैम (1992) हर्षद मेहता, इंडियन बैंक (1992), चारा घोटाला (1996) लालूतहलका, स्टॉक मार्केट; केतन पारीख, स्टांप पेपर स्कैमअब्दुल करीम तेलगी, सत्यम घोटाला, मनी लांडरिंग (2009) मधु कोड़ा...आगे सिलसिला जारी है...
इन सारे घोटालों  की जड़ में किसी ने नहीं हाथ डाला, सभी ने फुनगियां ही काटीं। नतीजा सामने है, यानी घोटालों का सिलसिला जारी है। अगर शुरू में ही जड़ पर हाथ डाला गया होता, तो आज इतने घोटालों की नौबत ही नहीं आती। जड़ का तात्पर्य उन सारे लोगों से है, जो बैकग्राउंड में रहकर घोटालों मेंअपनी भूमिका निभाते हैं। हालांकि इन पर हाथ डालना थोड़ा मुश्किल ज़रूर है, लेकिन असंभव नहीं।
Courtesy सुधांशु कुमार- B4M  अपनी बहुमूल्य टिपण्णी देना न भूले- धन्यवाद .

Saturday, July 24, 2010

0 मीडिया घरानों को ब्लैकमेल करने वाली जोड़ी

 अभिषेक वर्मा और अशोक अग्रवाल की दास्तान : राम कृष्ण डालमिया का नाम अब बहुत लोगों को याद नहीं है। 1950 के दशक में वे देश के सबसे रईस आदमी थे। यह वह समय था जब अंबानी कतर में एक पेट्रोल पंप पर काम किया करते थे। डालमिया राजस्थान के झुनझुनु जिले के चिरावा गांव के एक गरीब परिवार में पैदा हुए थे।
जल्दी ही वे कलकत्ता में अपने मामा के यहां काम करने चले गए और शेयर बाजार में सोने चांदी पर पैसा लगा कर फटाफट एक लाख रुपए कमाए और व्यापार शुरू कर दिया। पहली फैक्टरी बिहार में सीमेंट की लगाई और साहू शांति प्रकाश जैन उनकी बेटी को ट्यूशन पढ़ाते-पढ़ाते उनके दामाद बन गए।
इसी बीच अंग्रेजों के जाने के बाद उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशित करने वाली बैनेट एंड कोलमैन कंपनी खरीदी और इसमें एक बीमा कंपनी और ग्वालियर बैंक नाम की एक निजी बैंक का पैसा लगाने के आरोप में उस जमाने में उन्हें ढाई करोड़ रुपए का जुर्माना भरना था, जो उनके पास नहीं था, इसलिए उन्होंने तब तक खुद रईस बन चुके दामाद शांति प्रकाश जैन के पास बैनेट एंड कोलमैन कंपनी गिरवी रख दी। डालमिया सरदार पटेल, गांधी और जिन्ना के एक साथ दोस्त थे। व्यापार में उन्होंने काफी तरक्की की। उनके ऊपर आर्थिक मुसीबत तब आई जब फिरोज गांधी ने संसद में बैंक डूबने और इंश्योरेंस कंपनी का पैसा गलत इस्तेमाल करने का आरोप लगाया। जांच हुई और उन्हें लंबे समय जेल में रहना पड़ा।
मगर इतने बड़े मीडिया साम्राज्य के मालिक शांति प्रकाश जैन के बेटे अशोक जैन को भी भारत सरकार के प्रवर्तन निदेशालय ने कम तंग नहीं किया। हवाला के आरोप लगे और विदेशी मुद्रा कानून तोड़ने के भी इल्जाम लगे। तीन बार बाई पास सर्जरी करवा चुके अशोक जैन को भी जेल जाना पड़ा और आखिरकार अमेरिका में इसी तनाव में सिर्फ 65 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई।
अशोक जैन के साथ ज्यादती करने में जो दो लोग शामिल थे उनमें से एक अभिषेक वर्मा के पिता श्रीकांत वर्मा कांग्रेस नेता बनने से पहले टाइम्स समूह की पत्रिक दिनमान में उप संपादक थे। उनकी पत्नी बीना वर्मा भी राज्यसभा की सदस्य रही। अभिषेक ने प्रवर्तन निदेशालय के एक डिप्टी डायरेक्टर अशोक अग्रवाल से दोस्ती गांठ कर अशोक जैन को फंसाने का षडयंत्र तैयार किया था।
छत्तीसगढ़ के गरीब परिवार में जन्मे हिंदी के जाने माने कवि श्रीकांत वर्मा के बेटे अभिषेक वर्मा ने काफी समय तिहाड़ जेल में काटा है लेकिन अब भी दुनिया के कई देशों में उसके पास अरबों रुपए की संपत्ति है। अशोक अग्रवाल और अभिषेक वर्मा दोनों सोनिया गांधी के सचिव विंसेट जॉर्ज के काफी करीब रहे हैं। अभिषेक वर्मा दरअसल पेज 3 वाली पार्टियों में खूब जाता था और वहीं से लोगों की निगरानी कर के अशोक अग्रवाल के लिए ग्राहक जुटाता था।
सबसे पहले तो अशोक अग्रवाल ने अपनी पत्नी अस्मिता को ही फेरा कानून में फंसाया। इसके बाद दिल्ली के एक बड़े ज्वेलर एससी बड़जात्या को साल के आखिरी दिन जब सारी बैंक बंद होती हैं, स्विस बैंक की ओर से एक फर्जी फैक्स भेज कर छापा मारा और बंद कर दिया। दो दिन तक बड़जात्या को काफी यातना झेलनी पड़ी और बाद में जब बैंक ने ही लिख कर दे दिया कि उसने कोई फैक्स नहीं भेजा है तो अग्रवाल और वर्मा दोनों फंस गए। मगर विसेंट जॉर्ज के प्रभाव से बचे।
बाद में अग्रवाल एक और मामले में पकड़ा गया और पता चला कि उसे जिंदगी में कुल मिला कर जो 69 लाख रुपए की आमदनी, वेतन और अन्य सूत्रों से हुई है उससे सौ गुना ज्यादा पैसा और संपत्तियां उसके पास है। अग्रवाल जेल पहुंच गए मगर इसके पहले उसने अशोक जैन को मौत के कागार पर ला कर खड़ा कर दिया गया था। अशोक जैन के घर पर छापा मारा गया और वहां बहुत सारे विजिटिंग कार्ड मिले जिनमें से कई स्विस बैंक के मैनेजरों के थे और इसी के आधार पर अशोक जैन के खिलाफ मामला बनाया गया।
अभिषेक वर्मा और अग्रवाल बड़ी मछलियां फांसने में यकीन रखते थे। जैन टीवी के लगभग चरित्रहीन मालिक जेके जैन को नई दिल्ली से भाजपा की ओर से लोकसभा का टिकट मिलने वाला था मगर अचानक अशोक अग्रवाल ने उन्हें प्रवर्तन निदेशालय आकर बयान देने का नोटिस भेज दिया। जैन के बयान पर तो कोई कार्रवाई नहीं हुई लेकिन अग्रवाल और वर्मा ने जैन के अपने कार्यालय घुसते समय फोटो खिचवाने और छपवाने की व्यवस्था कर ली थी। भाजपा ने किसी विवाद के डर से जैन का टिकट काट दिया और अच्छा ही किया।
डाबर समूह के अमित बर्मन की एक अमेरिकन बैंक की चेक बुक के बहाने बर्मन को अग्रवाल ने वर्मा की मौजूदगी में अपने कार्यालय बुलाया और डरे हुए बर्मन ने लेन देन की बात की जिसे टेप कर लिया गया और फिर मोटा ब्लैकमेल हुआ। नेशनल एल्यूमिनियन कॉरपोरेशन के चेयरमैन एस एन जौहरी को अग्रवाल ने तब फसाया था जब वह केंद्रीय खजिन मंत्री बलराम सिंह यादव का निजी सचिव हुआ करता था। उसने जौहरी से एल्यूमिनियम खदानों के लिए पैसा मांगा था। सरकार के एक मंत्री का सचिव सरकार के एक संगठन के मुखिया से रिश्वत मांग रहा था और जब रिश्वत नहीं मिली तो उसके खिलाफ मामला बनाया गया और जांच के लिए फौरन सीबीआई को दे दिया गया। कोई मामला साबित नहीं हुआ और जौहरी वापस अपने पद पर पहुंच गए लेकिन अभिषेक वर्मा अब जमानत पर बाहर है और अशोक अग्रवाल पर मुकदमा चल रहा है। दोनों की दोस्ती भी टूट गई है।
आलोक तोमर जाने-माने पत्रकार हैं

Wednesday, July 21, 2010

0 बड़े पत्रकार, बड़े दलाल

पद्मश्री बरखा दत्त और वीर सांघवी. दो ऐसे नाम, जिन्होंने अंग्रेज़ी पत्रकारिता की दुनिया पर सालों से मठाधीशों की तरह क़ब्ज़ा कर रखा है. आज वे दोनों सत्ता के दलालों के तौर पर भी जाने जा रहे हैं. बरखा दत्त और वीर सांघवी की ओछी कारगुज़ारियों के ज़रिए पत्रकारिता, सत्ता, नौकरशाह एवं कॉरपोरेट जगत का एक ख़तरनाक और घिनौना गठजोड़ सामने आया है. देश की जनता हैरान है कि एनडीटीवी की ग्रुप एडिटर एवं एंकर बरखा दत्त और हिंदुस्तान टाइम्स के पूर्व संपादक, मौज़ूदा संपादकीय सलाहकार एवं स्तंभकार वीर सांघवी ने पत्रकार होने के अपने रुतबे और साख को दौलत की अंधी चमक से कलंकित कर दिया. एक सवाल और भी है, जो लोगों को परेशान कर रहा है कि दलाली में इतने बड़े दो नाम एक साथ भला कैसे हो सकते हैं. वैसे मीडिया के लोगों को कमोबेश इस बात की जानकारी है कि वीर सांघवी और बरखा दत्त के बीच क्या कनेक्शन है. पर आम लोगों को शायद ही पता हो कि वीर और बरखा, दोनों ही बेहद घनिष्ठ मित्र हैं. जब वीर सांघवी को न्यूज़ एक्स से इस्ती़फा देना पड़ा था, तब कहा गया था कि इसकी वज़ह भी बरखा ही बनी थी. शायद इसलिए दलाली में भी दोनों ने साथ ही हाथ काले किए.

जनवरी 2006 में जब ए राजा पर्यावरण मंत्री थे, तब होटल ताज मानसिंह में बरखा दत्त, वीर सांघवी और नीरा राडिया की एक लंबी मुलाकात हुई थी. नीरा की राजा से यह पहली मुलाकात थी. यह कमरा नीरा राडिया के नाम से बुक था. इसके बाद उनके मिलने का सिलसिला चल निकला. सीबीआई सूत्र बताते हैं कि बात भले ही चार कंपनियों की जा रही है, पर कंपनियों की कुल संख्या नौ है. कुल तीन सौ दिनों तक नीरा की बातें टेप की गई हैं. जो बातें निकल कर सामने आई हैं, उसकी बिना पर कल यह खुलासा भी हो सकता है कि इन नौ कंपनियों में बरखा और वीर की भी हिस्सेदारी हो.
पिछले दिनों एक कार्यक्रम में प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष जस्टिस गजेंद्र नारायण रे ने टिप्पणी की थी कि आज की पत्रकारिता वेश्यावृत्ति में बदल गई है. बरखा दत्त और वीर सांघवी ने अपने कुकृत्य से उनकी बात पर मुहर भी लगा दी है. पत्रकारिता के पेशे की आड़ में काली कमाई कर रहे इन दोनों नामचीन पत्रकारों के नाम आयकर विभाग और सीबीआई की सूची में बतौर दलाल दर्ज हो चुके हैं. आयकर विभाग और सीबीआई के पास इन दोनों के ख़िला़फ सबूतों की लंबी फेहरिस्त है. सीबीआई और आयकर महानिदेशालय के पास मौज़ूद टेपों में इन दोनों दिग्गज पत्रकारों को दलाली की भाषा बोलते हुए सा़फ सुना जा सकता है. सीबीआई की एंटी करप्शन शाखा ने जब टेलीकॉम घोटाले के सिलसिले में नीरा राडिया के ख़िला़फ 21 अक्टूबर 2009 को मामला दर्ज किया और छानबीन शुरू की, तब पाया कि नीरा राडिया अपनी चार कंपनियों के ज़रिए टेलीकॉम, एविएशन, पावर और इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े कॉरपोरेट सेक्टरों के फायदे के लिए बिचौलिए का काम करती हैं. नीरा अपने काम को पूरा कराने के लिए देश के नामचीन पत्रकारों को मोहरे के तौर पर इस्तेमाल करती हैं, जिसकी भरपूर क़ीमत भी नीरा इन पत्रकारों को देती हैं. सीबीआई के एंटी करप्शन ब्यूरो के डीआईजी विनीत अग्रवाल को जब इस बात के प्रमाण मिले तो उन्होंने आयकर महानिदेशालय के इंवेस्टीगेशन आईआरएस मिलाप जैन से नीरा राडिया से जुड़ी जानकारी मांगी. आयकर महानिदेशालय के ज्वाइंट डायरेक्टर आशीष एबराल द्वारा सीबीआई को भेजे गए सरकारी पत्र में जवाब आया कि नीरा राडिया पहले से ही संदिग्ध हैं और इस बिना पर गृह सचिव से अनुमति लेकर नीरा और उनके सहयोगियों का फोन टेप किया जा रहा था. इस दरम्यान ही यह कड़वी हक़ीक़त सामने आई कि वैष्णवी कॉरपोरेट कंसल्टेंट, नोएसिस कंसल्टिंग, विटकॉम और न्यूकॉम कंसल्टिंग कंपनियों के माध्यम से टाटा, अंबानी जैसे कॉरपोरेट घरानों को फायदा पहुंचाने की खातिर नीरा राडिया बरखा दत्त और वीर सांघवी जैसे रसूखदार पत्रकारों का इस्तेमाल करती हैं. बरखा और वीर सांघवी नीरा राडिया जैसी बिचौलिया के ज़रख़रीद बन सियासी गलियारों में तोल-मोल का खेल रचते हैं. पत्रकारिता के बूते बने अपने संपर्कों का उपयोग वे मंत्रिमंडलीय जोड़-तोड़ में करते हैं. अपने मतलब के कॉरपोरेट घरानों की सहूलियत के मुताबिक़ मंत्रियों को विभाग दिलवाते हैं और बदले में भारी-भरकम दलाली खाते हैं. सबूत कहते हैं कि दलालीगिरी का खेल ये दोनों बहुत पहले से करते आ रहे हैं, पर इनका भांडा फूटा ए राजा को संचार मंत्री बनवाने के बाद. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी नहीं चाहते थे कि आरोपों से घिरे ए राजा को संचार मंत्री बनाया जाए. मनमोहन सिंह ने ए राजा के नाम पर ग़ौर करने तक से मना कर दिया था. मनमोहन सिंह चाहते थे कि देश को अत्याधुनिक सूचना क्रांति से जोड़ कर समाज को समृद्घ बनाने में बेहद अहम भूमिका निभाने वाला संचार मंत्रालय ऐसे व्यक्ति के हाथ में जाए, जो कॉरपोरेट घरानों की कठपुतली न हो. उसकी छवि बेदाग़ हो. पर नीरा राडिया के हाथों बिक चुके बरखा दत्त और वीर सांघवी ने कांग्रेस के पावर कॉरिडोर में ऐसी ज़बरदस्त घेराबंदी की कि प्रधानमंत्री तो बेबस हो ही गए, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की भी एक न चली. सीबीआई और आयकर विभाग की फाइलों और टेलीफोन टेपों में बरखा और वीर सांघवी के ख़िला़फ दर्ज़ साक्ष्य उनकी दलाली की हौलनाक कहानी कहते हैं कि देश के नामचीन पत्रकार होने का इन दोनों ने किस क़दर ओछा लाभ उठाया. नीरा राडिया के हाथों की कठपुतली बन कर दोनों ने ही टाटा और अंबानी जैसे देश के टॉप कॉरपोरेट घरानों को व्यवसायिक फायदा पहुंचाने की गरज़ से लगातार पैरवी कर सरकार के कई नीतिगत फैसलों को बदलवाया. एयरटेल के मालिक सुनील भारती मित्तल के ज़बरदस्त विरोध के बा़वज़ूद दयानिधि मारन की बजाय ए राजा संचार मंत्री बने तो इसी कारण कि बरखा दत्त और वीर सांघवी जैसे स़फेदपोश बड़े पत्रकार राजा की पैरवी कर रहे थे. जांच से यह बात भी सामने आई है कि नीरा राडिया, बरखा दत्त और वीर सांघवी की तिकड़ी पुरानी है. नीरा राडिया की चारों कंपनियों में बतौर अधिकारी तमाम रिटायर्ड नौकरशाहों की भरमार है. इन सभी को वीर सांघवी और बरखा की तैयार की गई सूची के आधार पर ही रखा गया हैं. ये वे अधिकारी हैं, जिन्होंने विभिन्न मंत्रालयों में ऊंचे पदों पर काम किया है और जिन्हें मंत्रालयों के अंदरूनी कामकाज की बख़ूबी जानकारी है. इन्हें पता है कि मुना़फे के फेर में किस तरह सरकार को करोड़ों-अरबों का चूना लगाया जा सकता है. किस तरह विदेशी पूंजी निवेश क़ानून की धज्जियां उड़ा कर अरबों के वारे-न्यारे किए जाते हैं.
बहरहाल, फिलहाल तफ्तीश चल रही है. सीबीआई की एंटी करप्शन ब्रांच के जिस डीआईजी विनीत अग्रवाल की जांच पर नीरा, बरखा और वीर की दलाली के खेल का पर्दा़फाश हुआ है, उनका ट्रांसफर किया जा चुका है. अपनी गिरफ्तारी की आशंका से नीरा राडिया पहले ही देश छोड़कर भाग चुकी हैं. हर ख़बर पर बावेला मचाने वाला मीडिया इस मसले पर चुप है. तो क्या उम्मीद की जाए कि इतने बड़े घोटाले और महान पत्रकारों की दलाली का सच सामने आ पाएगा? अभी एक नाम आना और बाकी है. एक बड़े न्यूज़ चैनल के प्रबंध संपादक का नाम, जो इस तिकड़ी को दलाल चौकड़ी बना देगा. बस कुछ दिन और इंतज़ार कीजिए.
रुबी अरुण –chauthi duniya

Saturday, July 17, 2010

0 'लॉबिंग' के लिए खूब है पत्रकारों की मांग

पत्रकारिता नहीं, पत्रकार बिक रहे- अंतिम : लाइसेंस निरस्तीकरण की व्यवस्था हो : बावजूद इन व्याधियों के, पेशे को कलंकित करनेवाले कथित 'पेशेवर' की मौजूदगी के, पूंजी-बाजार के आगे नतमस्तक हो रेंगने की कवायद के, चर्चा में रामबहादुर राय जैसे कलमची भी मौजूद थे.
इन्होंने सच को स्वीकार करते हुए निराकरण का मार्ग भी दिखाया। 'पेड न्यूज' को पत्रकारिता की साख पर संकट निरूपित करते हुए उन्होंने बिल्कुल सही मंतव्य दिया कि पत्रकारिता बचेगी तभी लोकतंत्र बचेगा। 'पेड न्यूज' के उदगम स्थल को चिन्हित करते उन्होंने बिल्कुल ठीक सुझाव दिया कि जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन हो और चुनाव आयोग को शिकायतों पर कार्रवाई करने का अधिकार दिया जाए।
इस सच्चाई से तो कोई इंकार नहीं करेगा कि चुनावों में उम्मीदवारों के लिए निर्धारित खर्च की सीमा व्यावहारिक नहीं है। मीडिया में विज्ञापन की दर, प्रचार सामग्री पर होनेवाले व्यय, परिवहन खर्च आदि को जोड़ा जाए तो खर्च की सीमा अव्यावहारिक लगेगी। प्रचार की मजबूरी ने उम्मीदवारों, राजदलों और मीडिया संचालकों को 'पेड न्यूज' का रास्ता दिखाया। कुछ पत्रकारों ने मालिकों द्वारा प्रवाहित 'गंगा' में हाथ धोने के लिए खबरों को भी बिकाऊ बना डाला। स्वयं को बेच डाला। नतीजतन चुनावों के दौरान कुछ अपवाद छोड़ पत्रकारों को राजदलों और उम्मीदवारों के आगे-पीछे घूमते कोई भी देख सकता है। सहज धन के आकर्षण में ये पत्रकारीय दायित्व व मर्यादा को भूल जाते हैं। चूंकि यह रोग महामारी का रूप लेता जा रहा है, इसके उदगम स्थल पर ही बाड़ लगानी होगी।
रामबहादुर राय का सुझाव बिल्कुल सही है। जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन कर चुनावी खर्च की सीमा व्यावहारिक रूप में निर्धारित की जाए। साथ ही 'पेड न्यूज' के जरिये काले धन के प्रसार में मददगार उम्मीदवारों व मीडिया घरानों को दंडित किए जाने के लिए आवश्यक कानून बने। वर्तमान कानून बेअसर हैं। ऐसा कानून बने जिसमें दोषियों पर कठोर दंड का प्रावधान हो।
चुनाव आयोग को ही अधिकार दिया जाए ताकि वह दोषी पाए जाने पर उम्मीदवार का निर्वाचन अवैध घोषित कर सके। 'पेड न्यूज' को संरक्षण देने वाले मीडिया संचालक व पत्रकारों को भी इस कानून के दायरे में लाया जाए। उन्हें भी कठोर दंड दिए जाने का प्रावधान हो। आयकर विभाग तो अपना काम करे ही, समानान्तर अर्थव्यवस्था के मददगार समाचार पत्रों व न्यूज चैनलों के निबंधन व लाइसेंस रद्द किए जाएं। संभवत: ऐसे कदमों से 'पेड न्यूज' के प्रचलन पर रोक लगाई जा सकती है। बेहतर हो स्वयं मीडिया संस्थान इस हेतु पहल करें। जब 'एक नंबर' का द्वार उपलब्ध होगा तो 'दो नंबर' के द्वार में प्रवेश से मीडिया बचना चाहेगा।
संभवत: सतीश के.सिंह ने जिस 'सिस्टम' को तैयार करने का सुझाव दिया वह यही है। अब बात आयोजन के मुख्य अतिथि कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह की। मीडिया के चरित्र को लेकर दिग्विजय आरंभ से ही बेबाक रहे हैं। 'पेड न्यूज' के प्रचलन को अस्वीकार करते हुए दिग्विजय ने पूछा कि 'लॉबिंग' और विज्ञापन के बगैर अखबार व न्यूज चैनल चल सकते हैं क्या? यह ठीक है कि विज्ञापन के बगैर मीडिया जीवित नहीं रह सकता लेकिन विज्ञापन के नए बेईमान स्वरूप 'पेड न्यूज' के बगैर वह जीवित रह सकता है। अखबार और न्यूज चैनल विज्ञापन छापते-दिखाते हैं। देयक बनते हैं, संबंधित पक्ष 'एक नंबर' में भुगतान करता है। एक सामान्य सरल प्रक्रिया है। आज मीडिया घराने विज्ञापन प्रबंधन पर भारी राशि व्यय करते हैं। इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन, 'लॉबिंग'? यह भ्रामक शब्द है। यह तो पता नहीं दिग्विजय का आशय क्या था, लेकिन इस शब्द को चूंकि दलाली से जोड़कर देखा जाता है, आपत्तिजनक है।
आधुनिक विषकन्या नीरा राडिया ने ए. राजा के लिए 'लॉबिंग' की थी। उसी क्रम में अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त दो पत्रकार बरखा दत्त और वीर सांघवी ने नीरा राडिया का हित साधने के लिए उच्च राजनेताओं के बीच 'लॉबिंग' की थी। जाहिर है कि इन सब के पीछे धन का आकर्षण अथवा धनलोलुपता थी। ऐसी 'लॉबिंग' से ही पत्रकार बिरादरी के माथे पर कलंक का टीका लग जाता है। बिरादरी को समाज में शर्मसार होना पड़ता है। यह तो एक उदाहरण है।
सच तो यह है कि आज ऐसी 'लॉबिंग' के लिए पत्रकारों की मांग ने जोर पकड़ लिया है। राजनीतिक दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओं से लेकर अधिकारी व व्यापारी भी रसूखदार व्यापक संपर्क वाले पत्रकारों की सेवाएं ले रहे हैं। धन अथवा अन्य प्रकार के लाभ के एवज में की जाने वाली 'लॉबिंग' अनैतिक है। भ्रष्टाचार का एक अंग है। अगर दिग्विजय का आशय ऐसी 'लॉबिंग' से था तो इसे एक सिरे से खारिज कर दिया जाना चाहिए।
हां, बगैर किसी स्वार्थ के कोई पत्रकार अपने रसूख से, अपने संपर्क से न्याय के पक्ष में किसी के लिए 'लॉबिंग' करता है तो उसे स्वीकार किया जा सकता है। इसे मदद की श्रेणी में रखा जाएगा, दलाली की श्रेणी में नहीं। मैं अपनी बात दिग्विजय के शब्दों से ही समाप्त करना चाहूंगा। बात '90 के आरंभिक दशक की है जब दिग्विजय सिंह म.प्र. के मुख्यमंत्री थे। एक पत्रकार को दिये गए साक्षात्कार में उन्होंने दो टूक शब्दों में शासकीय प्रलोभन की बात को स्वीकार करते हुए पत्रकारों को चुनौती दी थी।
उन्होंने कहा था कि 'हम सत्ता में हैं। अपनी और अपनी सरकार का महिमामंडन चाहूंगा, प्रचार-प्रसार चाहूंगा। इसके लिए हमारे पास पत्र-पत्रकारों को प्रभावित-आकर्षित करने के लिए अनेक संसाधन व मार्ग हैं। हम तो अखबारों-पत्रकारों को अपने पक्ष में करना चाहेंगे ही। अब यह अखबारों-पत्रकारों पर निर्भर करता है कि वे हमारे प्रलोभन के जाल में फंसते हैं या नहीं।' दिग्विजय द्वारा तब दी गई चुनौती आज भी प्रासंगिक है। सत्ता, व्यावसायिक घरानों और प्रशासन ने अगर भ्रष्टाचार का मार्ग उपलब्ध करा रखा है तो फैसला पत्रकारों के हाथों है कि वह उस मार्ग पर कदम रखें या फिर उस मार्ग को उखाड़ फेंकने का व्रत लें। पत्रकार फैसला कर लें।
लेखक एसएन विनोद वरिष्ठ पत्रकार हैं.

Wednesday, July 7, 2010

2 दूरदर्शन की दक्षिणा से शुरू हुआ था इंडिया टीवी

 रजत शर्मा पर बड़े उपकार हैं अरुण जेटली के



एक टीवी चैनल स्थापित करने में करोड़ों रुपए लगते हैं और उसे चलाने में भी करोड़ों रुपये हर साल लगते हैं। दिल्ली में एक ऐसा टीवी चैनल है जिनका मालिक कश्मीरी गेट के एक अपेक्षाकृत गरीब परिवार में पैदा हुए थे।
एक ही कमरे में दर्जनों लोग सोते थे। बात इंडिया टीवी के मालिक रजत शर्मा की हो रही है। रजत शर्मा को जिंदगी में पत्रकारिता का ब्रेक जल्दी मिला। वे प्रभु चावला के अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और दिल्ली विश्वविद्यालय के जमाने के साथी हैं। भले ही प्रभु चावला जैसा होने का इल्जाम उन पर नहीं लगाया जाता लेकिन साइकिल से आधुनिकतम कारों और भूत- प्रेत दिखा कर ही सही, सफल होने वाले टीवी चैनल की सफलता की कहानी उनसे जुड़ी है। सफलता की इस कहानी के पीछे की कहानी आपको बतानी है।
साल सन 2000 था। सरकार अटल बिहारी वाजपेयी की थी। सूचना और प्रसारण मंत्री देश के जाने माने वकील और भाजपा के ताकतवर नेताओं में से एक अरुण जेटली हुआ करते थे। रजत शर्मा जिन्होंने प्रेस इंन्फॉरमेशन ब्यूरो का कार्ड लेने के लिए ग्वालियर के एक अखबार दैनिक स्वदेश से फर्जी अनुभव प्रमाण पत्र लिया था, जी टीवी के जरिए और आपकी अदालत जैसे सफल प्रोग्राम के रास्ते टीवी की दुनिया में आए थे। मगर उनका असली उद्धार उनके पुराने नेता और दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष रहे अरुण जेटली ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय के जरिए किया।
अरुण जेटली ने रजत शर्मा की कंपनी, जो वे अपनी दूसरी पत्नी रितु धवन के साथ चला रहे थे और चला रहे हैं, इंडीपेंडेंट इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, को डेढ़ घंटे का दैनिक कार्यक्रम बनाने के लिए सन 2000 में 55 लाख रुपए प्रति माह दूरदर्शन से देने का करार कराया था। यह करार इसलिए विचित्र था कि तकनीकी साधन और कर्मचारी भी दूरदर्शन के ही काम करते थे और कई बार दूरदर्शन का ही फुटेज इस्तेमाल किया जाता था, मगर रजत शर्मा की कंपनी को 55 लाख रुपए हर महीने मिलते रहते थे।
यह राज्यसभा का रिकॉर्ड कह रहा है। महान पत्रकार और आपातकाल में रजत शर्मा से ज्यादा जेल में रहे और माफी मांग कर बाहर नहीं निकले कुलदीप नायर ने राज्यसभा के सदस्य की हैसियत से सूचना और प्रसारण मंत्री अरुण जेटली से यह सवाल पूछा। जवाब मिला था कि सप्ताह में पांच दिन सुबह सेवन टू नाइन नाम का एक समाचार कैप्सूल बनाने के लिए इंडीपेंडेंट मीडिया को 55 लाख रुपए दिए जाते थे। हिसाब लगाएं तो बीस दिन 90 मिनट प्रतिदिन यानी 1800 मिनट का यह कार्यक्रम होता था और इसके लिए 55 लाख का नियमित भुगतान दूरदर्शन से होता था। प्रति मिनट भुगतान की गिनती आप कर लीजिए क्योंकि अपना गणित ज्यादा कमजोर हैं।
कुलदीप नायर ने अरुण जेटली से पूछा था कि उन संस्थाओं और व्यक्तियों के नाम बताए जाएं जिन्हें दूरदर्शन से लगातार पैसा दिया जा रहा है। इनमें इंडीपेंडेंट इंडिया प्राइवेट लिमिटेड का नाम तो बता दिया गया मगर रजत शर्मा और रितु धवन का नाम नहीं बताया गया। इसके पहले राहुल देव और मृणाल पांडे को डेढ़-डेढ़ लाख रुपए महीने पर समाचार सलाहकार रखा गया था तो काफी हंगामा मचा था।
कुलदीप नायर के सवाल के जवाब में रजत शर्मा और रितु धवन का नाम तो नहीं बताया गया मगर बीएजी फिल्म्स की अनुराधा प्रसाद का नाम बता दिया गया जो कांग्रेस सांसद राजीव शुक्ला की पत्नी हैं और भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद की बहन भी हैं। वे रोजाना के नाम से एक समाचार बुलेटिन बनाती थीं जिसके लिए उन्हें 22 लाख रुपए प्रतिमाह मिलते थे और दूरदर्शन के ढांचे का कोई सहयोग नहीं था। असली मुफ्तखोरी तो रजत शर्मा की कंपनी ने की। इसके अलावा 31 और कंपनियों के नाम थे जिनमें से ट्रांस वर्ल्ड इंटरनेशनल 36 लाख रुपए महीने में दैनिक खेल समाचार देती थी।
दूरदर्शन के ही एक भूतपूर्व कैमरामैन प्रेम प्रकाश की कंपनी एशियन न्यूज इंटरनेशनल - एएनआई को चौदह लाख दस हजार रुपए महीने मिलते थे। रिवर बैंक स्टूडियो सप्ताह में एक कार्यक्रम बनाता था और उसे चौदह लाख साठ हजार रुपए मिलते थे। शैली सुमन प्रोडक्शन को विज्ञान पर साप्ताहिक कार्यक्रम बनाने के लिए दस लाख साठ हजार महीने मिलते थे। टीम वर्ग फिल्म्स और आईएमए के नाम की कपंनी को सप्ताह में तीन बार पंचायती टॉक शो करने के दस लाख चालीस हजार रुपए मिलते थे और वर्ल्ड रिपोर्ट नाम की कंपनी को साप्ताहिक बुलेटिन विश्व समाचारों का निकालने के लिए दस लाख रुपए महीने मिलते थे।
कुलदीप नायर ने जोर देकर अरुण जेटली से पूछा था कि 55 लाख रुपए महीने दूरदर्शन से लूटने वाली इस कंपनी के असली मालिक कौन हैं यानी किसकी जेब में यह पैसा जा रहा है? उन्होंने पूछा था कि वे तीन व्यक्ति कौन हैं जो दूरदर्शन की आउटसोर्सिंग नीति के तहत सबसे ज्यादा कमाई कर रहे हैं? जेटली ने कहा कि दस्तावेजों में सबके नाम हैं। मगर कुलदीप नायर अड़े रहे और अरुण जेटली भी कम नहीं थे इसलिए उन्होंने लिखित बयान में इन सभी कंपनियों के कार्यक्रमों की समीक्षा पेश कर दी।
उन्होंने तो यहां तक कह डाला कि वीर सांघवी, नलिनी सिंह, मृणाल पांडे, चंदन मित्रा और सईद नकवी जैसे बड़े नामों को जोड़ कर उन्होंने अच्छा काम किया हैं। मृणाल पांडे अब प्रसार भारती की मुखिया बन गई हैं और रजत शर्मा अब इंडिया टीवी चलाते हैं और लोगों को डराते हैं। चंदन मित्रा दूसरी बार भाजपा की ओर से सांसद बने हैं और सईद नकवी अपने आप में इतने बड़े पत्रकार रहे हैं कि उनकी कोई कीमत नहीं लगाई जा सकती। नाम-चेहरे सब कायम हैं। कोई दक्षिणा लेकर गुरु घंटाल बन गया तो कोई दक्षिणा पर लात मारकर गुड़-गोबर रह गया। लेकिन इतिहास का नाम कुछ दशक की कहानी पढ़ना-पढ़ाना नहीं होता। भविष्य लालचियों और घपलेबाजों का नहीं ही है, आज भले बाजारू सफलता उन्हें चकाचौंध कर रही हो, आत्ममुग्ध कर रही हो।
लेखक आलोक तोमर देश के जाने-माने पत्रकार हैं.

Sunday, July 4, 2010

2 धोनी की शादी और मीडिया

वाह रे इंडिया मीडिया तेरा जवाब ही नहीं, धोनी की शादी क्या हो रही है, सभी टीवी चैनल वालों  के पास इसके सिवा दूसरी कोई खबर नहीं है! जी हाँ धोनी एक सेलेब्रेटी है, खबर जरुर दिखाओ, परन्तु क्या इसके सिवा कोई और न्यूज़ ही नहीं है. दर्शक सुबह से हर चैनल पर सिर्फ यही खबर देख रहा है., धोनी की शादी नहीं कोई नेशनल इवेंट है|

 ख़बरें भी किसी चुटकले से कम नहीं !
सबसे पहले हमारे चैनल ने  दिखाया धोनी की सगाई हो गईअब शादी करेंगे !
 सबसे पहले  exclusive तस्वीर सिर्फ हमारे चैनल पर (यह वो घोड़ी है जिस पर धोनी बैठेंगे ) ये वो  लाल साडी जिसे धोनी की दुल्हन पहनेगी. एक पंडितजी बता रहें है  शादी केसे होती है, शादी मैं क्या क्या होता है. (क्योंकि प्राचीन काल से आज तक हिंदुस्तान मैं किसी की शादी ही नहीं हुई है)  सिर्फ धोनी ही कर रहें है., एक दूसरा  पंडितजी आने वाला भविष्य बता रहा हैजय माला मैं कोन कोन से फूल लगें हैफूलवाला जयमाला का आर्डर लेकर बहुत खुश है,   दुल्हन अपनी माँ के साथ रेसोर्ट मैं है, (दुल्हन माँ के साथ नहीं तो किसके साथ होगी.?) हल्दी की  रस्म हुई, रस्म मैं दूल्हा  दुल्हन दोनों मोजूद रहे, जब शादी दोनों कर रहें है तो और कोन मोजूद रहेगा?
धोनी के रेसोर्ट तीन दिन के लिए बुक किया है. शादी मैं कोन कोन आने वाला है यह भी हम बताएँगे. दुल्हन को क्या क्या पसंद है. !

लिखने को तो बहुत कुछ है, परन्तु आप सब कल से टीवी देख रहें है. मैं कम से कम मैं आप सब को बोर नहीं करूँगा.

Monday, April 19, 2010

0 Media

शुक्र है,  मीडिया को सानिया मिर्ज़ा की शादी से फुरशत तो मिली,  सौ करोड़ से अधिक की आबादी और असंख्य समस्याओं से घिरे हुए  देश में मीडिया के पास कोई मुद्दा ही  नहीं है,  और अब शशि थरूर जी (Busy ) रखेंगे.