Fact of life!

एवरीथिंग इज प्री-रिटन’ इन लाईफ़ (जिन्दगी मे सब कुछ पह्ले से ही तय होता है)।
Everything is Pre-written in Life..
Change Text Size
+ + + + +

Tuesday, August 3, 2010

0 60 साल गणतंत्र के? आज भी घर से बेघर कश्मीरी हिन्दू

भारत अपना 60वां गणतंत्र दिवस मनाने जा रहा है. लेकिन विडम्बना है कि कश्मीर के अल्पसंख्यक हिन्दू यानी कश्मीरी पण्डितों के मानवाधिकारों की बात करने वाले कुछ ही लोग हैं. अधिसंख्य  कश्मीरी हिन्दू नागरिक आज भी तम्बुओं में जीवन बीताने को मजबूर हैं.
चाहे धर्म के नाम पर हो या राजनीति के नाम पर, आज़ादी के नाम पर हो या हक़ के नाम पर, आतंक का न कोई दीन होता है न धर्म, न विवेक होता है न ईमान. यह सच है कि धर्म के नाम आतंकवाद जरूर फैलाया जा रहा है. परंतु ताकत हासिल करने की इस अंधाधुंध दौड़ में कुचल के रह जाते हैं मानवता, संवेदना और भाईचारा . भारत में आतंकवाद का नाम आये तो मन में 'कश्मीर' ज़रूर आता है.

1990
से सीमापार की ताकतों की मदद से धार्मिक कट्टरपंथ और चरमपंथ से प्रेरित हिंसा के द्वारा कश्मीर की संस्कृति, सभ्यता, सांसकृतिक धरोहरों तथा 'सर्वधर्म समभाव' की परंपरा  को कुचलने का यथाक्रम प्रयास किया जा रहा है. कश्मीर सेहिंदुओं का निर्मूलन आतंकवादियों तथा स्थानीय कट्टरपंथियों का एक प्रमुख मुद्दा रहा है क्योंकि हिन्दू कश्मीर को भारत से अलग किये जाने के समर्थन में नहीं है. ना ही वह ये किसी ऐसे शासन का अनुमोदन करते हैं जो कि इस्लाम का अनुकरण करने को बाध्य करता हो. सांप्रदायिकता, रूढ़िवाद तथा पृथकतावाद का विरोध करने में कश्मीरी पंडित सदा ही आगे रहे हैं. इसी कारण शांतिप्रिय तथा आधुनिक विचारों वाला यह कश्मीरी अल्पसंख्यक समुदाय आतंकवादियों का प्रमुख निशाना बना

.इतिहास:
4
जनवरी, 1990 को कश्मीर के एक स्थानीय समाचार पत्र आफ़ताब ने हिजबुल मुजाहिदीन (जो कि जमात-ए-इस्लामी द्वारा जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग कर पाकिस्तान में जोड़े जाने के लिये जिहाद शुरु करने के उद्देश्य से 1989 में बनाया गया था) द्वारा जारी एक प्रेस-विज्ञप्ति छापी जिसमें सभी हिंदुओं को कश्मीर छोड़ने के लिये कहा गया था. एक और स्थानीय समाचार पत्र अल सफा में भी यही विज्ञप्ति छपी.

आने वाले दिनों में कश्मीर की वादियों में अफरा-तफरी मच गयी. मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला की सरकार हालात पर काबू नहीं पा सकी. सड़कों पर बंदूकधारी आतंकवादी और कट्टरपंथी क़त्ल-ए-आम करते और भारत-विरोधी नारे लगाते खुले-आम घूम रहे थे.  जल्द ही हिंदुओं, खासकर कश्मीरी पंडितों के मारे जाने की ख़बरों का ताँता लग गया. अमन और ख़ूबसूरती की मिसाल कश्मीर की वादियाँ जल उठीं. जगह-जगह धमाके हो रहे थे, मस्जिदों से अज़ान की जगह भड़काऊ भाषण गूंज रहे थे

दीवारे पोस्टरों से भर गयीं., सभी कश्मीरियों को आदेश था कि वह कड़ाई से इस्लाम का पालन करें. मदिरा के सेवन और खरीद-फरोख़्त तथा सिनेमा घरों पर पाबंदी लगा दी गयी थी. सभी लोगों को मजबूर किया गया कि उनकी घड़ियाँ पाकिस्तानी समय दिखायें. कश्मीरी पंडितों, जो कि सही अर्थों में  कश्मीर के निवासी हैं तथा जिनकी सभ्यता और सांस्कृतिक इतिहास लगभग 5000 वर्ष पुराना है, के मकान-दुकानों तथा अन्य प्रतिष्ठानों को चिह्नित कर दिया गया. उनके दरवाज़ों पर नोटिस लगा दिये गये जिनमें लिखा था कि वे या तो 24 घंटो के भीतर कश्मीर छोड़ दें या फिर मरने के लिये तैयार रहें. इनमें से एक में साफ तौर पर कहा गया था कि वे या तो इस्लाम को अपना लें अथवा भाग जायें अन्यथा मरने को तैयार रहें.

19
जनवरी को श्री जगमोहन ने जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल की गद्दी संभाली. मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला ने इस्तीफा दे दिया. कश्मीर में व्यवस्था को बहाल करने के लिये सबसे पहले कर्फ्यू लगा दिया गया लेकिन यह भी आतंवादियों और कट्टरपंथियों को रोकने में नाकाम रहा.

सारे दिन जम्मू एंड कश्मीर लिबरेशन फ्रंट और हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकवादी आम लोगों को कर्फ्यू तोड़ सड़क पर आने के उपदेश देते रहे. शाम ढलते यह उपदेश और भी तेज़ होते गये. 'कश्मीर में अगर रहना है, अल्लह-ओ-अक़बर कहना है', 'यँहा क्या चलेगा, निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा', और असि गच्ची पाकिस्तान, बताओ रोअस ते बतानेव सान' जैसे नारे रात भर मस्जिदों से गूँजते रहे.

इससे पहले के महीनों में नामी वकील तथा भाजपा के सदस्य पं. टीका लाल टपलू की जे.के.एल.एफ. द्वारा श्रीनगर में 14 सितंबर 1989 को दिन-दहाड़े की गयी नृशंस हत्या के पश्चात क़रीब 300 हिंदु महिलायें और पुरुष जिसमें लगभग सभी कश्मीरी पंडित थे, मारे जा चुके थे. इसके बाद जल्दी ही श्रीनगर के न्यायाधीश एन.के. गंजू की भी गोली मार कर हत्या कर दी गयी. औरतों का अपहरण कर उनके साथ दुष्कर्म करने के पश्चात उनकी भी ह्त्या की जा रही थी. कश्मीर में हिंदुओं की निर्मम हत्यायें आतंकवादियों के परपीड़क स्वभाव की द्योतक थीं.

सभी पीड़ितों को भयंकर यातनायें दी जाती थीं. आतंकवादी लोगों की हत्या करने के लिये स्टील के तार से गला घोटना, फांसी देना, लोहे की सलाखों से दागना, ज़िंदा जलाना, मारपीट करना, आंखे निकाल लेना, ज़िंदा डुबाना तथा अंग विच्छेदन जैसे बर्बर अमानविक तरीके अपनाते थे. संवेदनहीनता की हद यह थी कि किसी को मारने के बाद यह आतंकवादी जश्न मनाते थे. कई बार तो शवों का समुचित दाह-संस्कार भी नहीं करने दिया जाता था.

कश्मीरी पंडित एक बार फिर आतंकियों के निशाने पर थे. अंततः 19 जनवरी, 1990 की रात निराशा और अवसाद से जूझते हज़ारों कश्मीरी पंडितों का साहस टूट गया. उन्होंने अपनी जान बचाने के लिये अपने घर-बार को छोड़ अपनी मातृभूमि से पलायन का निर्णय लिया. इस प्रकार 350,000 कश्मीरी पंडितों को जो कि कश्मीर की हिंदु आबादी का 99% हिस्सा थे, पाकिस्तान में प्रशिक्षित आतंकवादियों और चरमपंथियों के द्वारा कश्मीर से खदेड़ दिया गया. अपने ही देश में इन हिंदुओं को आतंक, लूटपाट, आगजनी और हत्या की बर्बर मुहिम के चलते अपनी मातृभूमि से दूर एक निर्वासित जीवन जीने के लिये मजबूर होना पड़ा.
.
असर: 
20
वीं शताब्दी में हुए इस पलायन के 5 साल बाद तक कश्मीर से ज़बर्दस्ती निष्काषित किये गये हिंदुओं में से लगभग 5000 लोग विभिन्न कैंपो तथा अन्य स्थानों पर काल का ग्रास बन गये. इनमे से कई लोगों (1000 से अधिक)  की मृत्यु 'सनस्ट्रोक'की वजह से हुई क्योंकि कश्मीर की सर्द जलवायु के आदी यह लोग भारत में अन्य स्थानों पर पड़ने वाली भीषण गर्मी का प्रकोप सहन नहीं कर सके. क़ई अन्य दुर्घटनाओं तथा हृदयाघात का शिकार हो गये.

 डॉक्टरों के अनुसार गहरे भावनात्मक तथा मानसिक आघात तथा मानसिक दबाव के चलते ही यह लोग असामयिक मृत्य को प्राप्त हो गये.  बसे बसाये परिवार तितर-बितर हो गये. आज भिन्न संस्कृति वाला यह विस्थापित समुदाय अपनी ज़मीं से जुदा होने के कारण विलुप्त होने की कगार पर है.

क्या ही विडंबना है कि इतना सब होने के बावजूद इस घटना को लेकर शायद ही कोई रिपोर्ट दर्ज हुई. यदि यह घटना अल्पसंख्यकों [विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय] के साथ हुई होती तो हो-हल्ला मचा होता, कितनी ही फिल्में बन जातीं, मीडिया छोटी से छोटी जानकारी भी बढ़ा-चढ़ा के जनता तक पँहुचाता. लेकिन चूंकि पीड़ित हिंदू थे इसलिये न तो कुछ लिखा गया न ही कहा गया. सरकारी तौर पर भी कहा गया कि कश्मीरी पंडितों ने स्वंय पलायन और विस्थापन का चुनाव किया.
 
राष्ट्रीय मानवाधिकार संघ ने एक हल्की-फुल्की जाँच के बाद सभी तथ्यों को ताक पर रख इस घटना को जाति-संहार मानने से इनकार कर दिया. जबकि अब तक आतंकवादी हमलों में कितने ही स्त्री, पुरुष और बच्चे मारे जा चुके हैं.

कश्मीर में अल्पसंख्यक समुदाय की तरह रह रहे हिन्दू अब अपने ही देश में, अपितु कुछ तो अपने ही राज्यों में शरणार्थियों की तरह रह रहे हैं. यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि जम्मू-कश्मीर तथा भारत सरकार दोनों ही कश्मीरी पंडितों को इस्लामी आतंकवाद से बचाने में नाक़ामयाब रहीं. जम्मू-कश्मीर एक मुस्लिम बाहुल्य प्रदेश है तो क्या यह सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है कि भारत में एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की व्यवस्था बनाये रखने के लिये कश्मीर में पंडितों की पूरी सुरक्षा का बंदोबस्त किया जाये.
हमारे संविधान के अनुसार भारत में किसी भी व्यक्ति को धर्म, रंग और जाति के आधार पर विभाजित किये बिना सम्मानपूर्वक जीवन बिताने का अधिकार है. कश्मीरी पंडितों का यह पलायन क्या उस अधिकार का हनन नहीं है. केवल सरकार ही नहीं विश्व की बड़ी-बड़ी मनवाधिकार संस्थायें भी इस मामले पर चुप्पी साधे रहीं. विख्यात अंतर्राष्ट्रीय संगठनों जैसे एम्नेस्टी इंटरनेशनल, एशिया वॉच तथा कई अन्य संस्थाओं मे आज भी इस मामले पर सुनवाई होना बाकी है. उनके प्रतिनिधि अभी तक दिल्ली, जम्मू तथा भारत के अन्य राज्यों में स्थित उन विभिन्न कैंपों का दौरा नहीं कर सके हैं जँहा पिछले दस साल से कश्मीरी पंडितों के परिवार शरणार्थियों का जीवन व्यतीत कर रहे हैं.
 एक पूरा समुदाय समाप्त हो कर भी अपनी आवाज़ लोगों तक नहीं पँहुचा सका. शायद हिंदूओं के प्रति विश्व की संवेदनायें जागना अभी बाकी है 
THANKS AND  COURTESY BY TARAKASH

0 comments:

Post a Comment

अपनी बहुमूल्य टिपण्णी देना न भूले- धन्यवाद!!