नक्सलवाद आज भले ही देश के लिए सबसे बड़ी समस्या के रूप में सामने हो लेकिन सच तो यह है कि देश और दुनिया में इससे भी कई बड़ी समस्याओं ने अपना विकराल रूप दिखाया है। खास बात यह है कि समस्या चाहें कितनी भी बड़ी क्यों न हो जब सरकार ने चाह लिया और उसे खत्म करने का ठान लिया तो उनका अस्तित्व खत्म ही कर डाला। फिर ऐसे में नक्सलवाद को लेकर आखिर सरकार किस बात का इंतजार कर रही है, किसी की भी समझ से परे है।
खालिस्तान का खत्मा
नक्सल की तरह ही तीन दशक पहले देश के लिए खालिस्तान की मांग नासूर बन गई थी। देश के कुछ सिख अलगाववादियों ने सिखों के लिए अलग स्वतंत्र राष्ट्र खालिस्तान की मांग की थी। इसको लेकर उग्रवादी संगठन का भी गठन हुआ। इससंगठन की मांग ने बाद में हिंसक होते हुए उग्रवाद का रूप ले लिया। जहां देश में रह रहे कुछ सिख अलगाववादियों ने इन्हें शारीरिक रूप में मजबूत किया वहीं विदेश में रहने वाले कुछ सिखों ने उन्हें आर्थिक मदद पहुंचाई।
आलम यह हुआ कि उनका यह आंदोलन सरकार के लिए सिरदर्द बन गया और उग्रवादी को आतंकी संगठन घोषित कर दिया गया है। काफी मशक्कत के बाद भी जब इस समस्या का समाधान नहीं हुआ तो तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी ने मानो इस उग्रवादी संगठन को जड़ से खत्म करने की कसम सी खा ली। फिर क्या था, पंजाब में केपीएस गिल को डीजीपी बनाकर एक सूत्री काम दिया गया, उग्रवादी संगठन को नेस्तनाबूत करने का। वही हुआ। दल और बल के साथ गिल इस संगठन के पीछे पड़ गए।
पंजाब का क्षेत्र खेत और जंगलों वाला था इसलिए सरकार ने बख्तरबंद गाड़ियों की जगह बख्तरबंद टैक्टर खेतों में दौड़ाकर उग्रवादियों को खदेड़ना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे यह संगठन टूटने लगा। अंत में इस संगठन के कर्ता-धर्ता जरनैल सिंह भिंडरवाला ने अपने कुछ साथियों के साथ छिपने की कोशिश की तभी सरकार ने एक और ऑपरेशन शुरू किया। नतीजा यह रहा कि इस ऑपरेशन में भिंडरवाला समेत उग्रवादी संगठन के टॉप मोस्ट लगभग सभी बड़े आतंकी मार दिए गए। उसके बाद से इस संगठन का अस्तित्व खत्म हो गया।
लिट्टे का सफाया
कुछ इसी तरह कहानी है लिब्रेशन टाइगर्स ऑफ तमिल इलम यानी लिट्टे की. वी. प्रभाकरण के नेतृत्व में चलने वाले इस संगठन के आतंक से सिर्फ श्रीलंका, इंडिया या आस-पास के देश ही नहीं बल्कि पूरा विश्व समुदाय चिंता में पड़ गया था। उनकी मांग भी कुछ ऐसी ही थी। तमिलों के लिए अलग राष्ट्र की मांग। इस संगठन का दखल इंडिया में काफी बढ़ गया था, क्योंकि यहां तमिलों की संख्या काफी अधिक है। पहले तो इसने आंदोलन का रूप लिया लेकिन बाद में यह भी आतंक के रूप में सामने आया। इस संगठन ने इंडियन पीएम राजीव गांधी समेत तीन-तीन बड़ी हस्तियों को भी मौत के घाट उतार दिया। दुनिया में आत्मघाती हमलों को जन्म देने का श्रेय भी इसीको जाता है। दुनिया में सबसे बड़ा आत्मघाती दस्ता लिट्टे के पास ही था। लगभग तीन दशकों तक श्रीलंका और इंडिया ने इसका आतंक झेला। आखिर कुछ समय पहले श्रीलंका के राष्ट्रपति महिद्रा राजपक्षे ने इसको मिट्टी में मिलाने का संकल्प ले लिया। इस आतंकी संगठन के सारे ठिकाने ध्वस्त किए जाने लगे और प्रभाकरण की भी मार दिया गया। इसी के साथ राजपक्षे ने यह साबित कर दिया कि अगर कुछ करने का ठान लिया जाए तो मुश्किल कुछ भी नहीं है।
एक पुरानी कहावत है, व्हेयर देयर इज ए विल, देयर इज ए वे। यानी जहां इच्छा शक्ति होती है, वहां रास्ते खुद ब खुद निकल आते हैं, लेकिन देश में नक्सल समस्या को लेकर केंद्र सरकार का जो रवैया है उसे देखकर तो यही कहा जा सकता है कि नो विल नो वे। कारण साफ है, सरकार के अंदर न तो कोई ऐसी इच्छा शक्ति दिख रही है और न ही वह इसको लेकर ऐसा कोई कारगर कदम उठा रही है जिससे इस समस्या को हल किया जा सके। आए दिन होने वाली नक्सली वारदातों में बहुत से जवान शहीद हो जाते हैं, न जाने कितने मासूम मौत का शिकार हो जाते हैं, लेकिन सरकार अभी तक यह भी नहीं तय कर पा रही है कि इस मामले में आर्मी को बुलाना चाहिए या नहीं।
राह के रोड
ø इस मिशन में सबसे बड़ी रुकावट वोट की पॉलिटिक्स है। नक्सल समर्थित इन लोगों का अपना एक बड़ा वोट बैंक भी है जिसके कारण सरकार का रवैया ढुलमुल है।
ø सेंट्रल-स्टेट कांफलिक्ट भी एक बड़ा रोड़ा है। नक्सली वारदातों और समस्या के लिए दोनों ही एक दूसरे को जिम्मेदर ठहराते रहते हैं।
ø नक्सलियों के खिलाफ ऑपनेशन चलाने को लेकर सरकार में सही स्ट्रेटजी की कमी है। खास बात यह है कि जो जवान नक्सल प्रभावति एरिया में तैनात किए जाते हैं उन्हें वहां के बारे में जानकारी ही नहीं होती।
[जेएनएन
THANKS AND COURTESY BY JNN
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