Fact of life!

एवरीथिंग इज प्री-रिटन’ इन लाईफ़ (जिन्दगी मे सब कुछ पह्ले से ही तय होता है)।
Everything is Pre-written in Life..
Change Text Size
+ + + + +

Monday, December 6, 2010

0 आप प्रधानमंत्री हैं, राजदंड क्यों नहीं उठाते?

 विशेष संपादकीय . प्रधानमंत्री को 'मैं आजाद हूं' फिल्म देखनी चाहिए। पूरी नहीं। आखिर के एक-दो दृश्य। उसमें संकट से घिरे मुख्यमंत्री से भ्रष्ट कारोबारी अवैध लाइसेंस व दीगर फायदे मांग रहे हैं। मुख्यमंत्री बेबसी जाहिर कर रहे हैं। इस पर उन्हें धमकाया जाता है: 'क्यों नहीं दे सकते टेंडर, आखिर आप मुख्यमंत्री हैं।

जो चाहे कर सकते हैं।' बस, इस बात से माहौल ही बदल जाता है। मुख्यमंत्री में नई जान आ जाती है : ' अच्छा याद दिलाया कि मैं मुख्यमंत्री हूं, जो चाहे कर सकता हूं। अफसरों, जेल में डाल दो इन सब भ्रष्टों को!' जाहिर है, राजदंड के चलते ही सारे उद्दंड समाप्त।
देश में अब तक के सबसे बड़े घोटाले 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन पर हमारे ईमानदार प्रधानमंत्री आखिर मौन क्यों? यह प्रश्न सुप्रीम कोर्ट ने इतनी ही सीधी भाषा में उठाया था। लेकिन 'आप प्रधानमंत्री हैं, जो चाहे कर सकते हैं' जैसी ललकार उन्हें एक ऐसे शख्स से मिली, जो सारे 2जी घोटाले में खुद कुछ इस तरह फंसा कि उनके जैगुआर जैसी विशाल प्रतिष्ठा के नैनो जैसी छोटी होने का खतरा सामने दीख रहा है। रतन टाटा की बात हो रही है यहां।
उनकी कंपनी को 1658 करोड़ रुपए में लाइसेंस मिला। तत्काल इसका 27 प्रतिशत हिस्सा जापानी कंपनी डोकोमो को 12,924 करोड़ रु. में बेच दिया। यानी महाघोटाले से भारी मुनाफा। फिर भी गरजे सरकार पर। कहा: देश 'बनाना रिपब्लिक' बन जाएगा, यदि भ्रष्टाचार नहीं रोका।
बनाना रिपब्लिक यानी ऐसी गरीब अर्थव्यवस्था वाला देश, जिसकी इकोनॉमी सिर्फ एक फसल (जैसे केले) पर टिकी हो और देश भ्रष्ट नेतृत्व के कब्जे में हो! जो लोग इस शर्मनाक घोटाले के टेप से वाकिफ हैं, उन्हें इस बयान ने बुरी तरह चौंकाया।
कठघरे में खड़े लोग भी अब प्रधानमंत्री को चेतावनी दे रहे हैं। लेकिन 'मन' है कि मौन ही है। मीडिया-राडिया गठजोड़ का क्या? - भारतीय मीडिया के लिए यह शर्मनाक से ज्यादा दर्दनाक है। गौर सिर्फ यह करना होगा कि जिन जर्नलिस्ट के नाम लॉबीस्ट होने का दाग लगा है- वे सहज सामान्य पत्रकार नहीं है।
वे सभी सेलिब्रिटी हैं। चमत्कारिक व्यक्तित्व वाले। इसलिए चमत्कारिक काम भी सामने आ रहे हैं। लेकिन पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं के लिए मीडिया के इस वर्ग का ऐसा बेनकाब होना खुशखबरी है। क्योंकि बड़ा साहस दिखाते हुए, बड़ी जिम्मेदारी से अलग-अलग मीडिया इस पर खुलकर बोल रहा है, सबकी आंखें खोल रहा है। हमेशा दूसरों को आइना दिखाया, अब अपनी शक्ल सुधारने में जुट गया है। अच्छा यह है कि अब जनता उसे और कड़ाई से जांचेगी।
.. लेकिन इसी को फरेब कहते हैं - इस अपवित्र गठजोड़ ने ही 2जी महाघोटाले को राष्ट्रीय धोखाधड़ी बना दिया है। जब इतने बड़े पैमाने पर, इतने बड़े संपादक 'ऐसा' साक्षात कर रहे हों तो यह भ्रष्टाचार को भी मात कर फरेब की श्रेणी में आ जाता है।
यह 'पेड न्यूज' से भी ज्यादा भयावह है। खबरों में दुनिया तलाशने वाले पाठकों/दर्शकों के लिए दैत्याकार धक्का है। लेकिन मीडिया ही सत्ता की दलाली की सबसे बड़ी कहानी की परतें खोलेगा। यही हमारी अगली, असली चुनौती होगी। मूर्तिभंजन का दौर होगा यह।
बोफोर्स व हवाला से तुलना कितनी सही? - इस लूट के किरदारों के कुछ समर्थक यह प्रचारित करने में लग गए हैं कि बोफोर्स और हवाला कांड के समय जो भय और भ्रम फैलाया गया था, उससे देश को भारी नुकसान पहुंचा। कुछ सिद्ध तो नहीं ही हुआ, सरकार चली गई, मंत्री बर्खास्त हो गए। धब्बा लग गया। हर किसी को 'चोर' बना दिया गया। फिर वैसा ही वातावरण बनाया जा रहा है। यह प्रचार ठीक नहीं है।
डॉ. मनमोहन सिंह की हालत तो हर्षद मेहता कांड के समय के वित्त मंत्री जैसी है। जो तब भी उतना ही नैराश्य में डूबा हुआ था, जितना आज। सिर्फ पद का अंतर है। घोटाला भी बोफोर्स या हवाला जैसा नहीं है। इसमें भ्रष्टाचार चाहे जैसा हो, चरित्रहीनता ठीक वैसी है जैसी संसद में प्रश्न पूछने के बदले कापरेरेट घरानों से पैसे वसूलने में दिखी थी। या कि जैसा राव सरकार को बचाने के लिए सांसदों को घूस देने में।
क्या हम सवा सौ करोड़ लोगों ने किया घोटाला? - देश में स्वास्थ्य पर खर्च होने वाली रकम से कोई नौ गुना बड़ी राशि लूट ली गई है इस पूरी साजिश में। लेकिन पीएम की चुप्पी के कारण कठघरे में खड़ा हर व्यक्ति राजा बन बैठा और हमें रंक बनाता रहा। अब सभी कह रहे हैं 'हम तो अपना काम कर रहे थे।' जैसिका हत्याकांड में सबके बरी होने पर एक शीर्षक मशहूर हुआ था 'नोबडी किल्ड जैसिका!' ऐसा ही इसमें है। किसी ने घोटाला नहीं किया। तो क्या पौने दो लाख करोड़ रुपए, हम सवा सौ करोड़ लोग खा गए?
जवाब सिर्फ प्रधानमंत्री दे सकते हैं। जो स्वयं 2 नवंबर 2007 को इस घपले को भांप गए थे और आपत्ति लेते हुए पत्र लिखा था राजा को। ठीक दो माह बाद अचानक न जाने क्या दबाव आया कि उन्होंने राजा को इसकी मंजूरी दे डाली। क्यों? कुछ लोग संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) पर कह रहे हैं कि इससे क्या हो जाएगा?
बोफोर्स जेपीसी के सदस्य की टिप्पणी से समझिए : ,'मैं तमिल हूं और मेरे ईष्ट भगवान शिव हैं। यदि आज साक्षात शिव भी आकर कहें कि बोफोर्स घोटाले में शीर्ष पर बैठे लोग शामिल नहीं थे तो मैं उनकी भी नहीं सुनूंगा।' यानी रिपोर्ट भले ही रद्दी में फेंक दी जाए, लेकिन उसमें ऐसे शब्द आ सकते हैं जो सच्चई के रूप में हमेशा गूंजते रहेंगे।
Source: कल्पेश याग्निक, bhaskar अपनी बहुमूल्य टिपण्णी देना न भूले- धन्यवाद

0 comments:

Post a Comment

अपनी बहुमूल्य टिपण्णी देना न भूले- धन्यवाद!!